पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१९३

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अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ) १८० अथर्ववेद प्रतीक सकल पाउ १०८.२ के आधार पर लिया खरूप बादकी बनी हुई स्मृतियोंके समान ही है गया है । इसी भांति ६८.३५ का प्रतीक, इदावत्स- और संस्करण कर्ताओके मनमें इस काण्डकाके राय' सकल पाठ ४२.१७ के अधार पर है। इस ! मिलाने की इच्छा बाद की है। इसका कारण यह अंथ में केवल यही एक ऐसा उदाहरण है जहाँ है कि यद्यपि विद्यार्थियों को वेद पढ़ाना प्रारम्भ संस्करण कर्त्ताने सम्पूर्ण परिचित तथा ज्ञानके करनेके विषयमें अच्छा विवेचन किया है तो भी विषयों का उत्तम संग्रह तथा मिश्रण किया है। इन दो भागों के बीच इन्द्र महोत्सव नामक अन्तिम संस्करणके समय सकल पाठ ४२, १६ का राजकार्य का विवेचन व्यर्थही घुसेड़ दिया है। 'ब्रतानि बतपतये' मन्त्र छोड़ कर सूत्र शैली का यद्यपि १३६ कण्डिका की भाषा सामान्यतः अन्य उपयोग करनेमें श्रूत्रकारने गलती की है। किन्तु भागों की गृह्यविधि वर्णन की भाषा की अपेक्षा प्रतीक पहले ही ६.१६ में आचुका है सूत्रग्रंथों में भिन्न नहीं है तौभी इस कारणसे संशय उत्पन्न होता पूर्वापर सम्बन्ध बराबर रखने के लिये इसके विरुद्ध है कि उसमें आये हुए विषय का वर्णन पहले ही क्रम आया होता । १३७. ३० में आगेके तीन २५६-८ में प्राचुका है । ५६ = में विद्यार्थियों को श्लोकोंकी प्रतीके दी हुई हैं। इनकी रचना स्वच्छ न सावित्री पाठ का श्रादेश किया गया है परन्तु होनेके अनेक और भी उदाहरण हैं । २.४१ में १३६.१० में सावित्रीके साथ साथ अथर्ववेदके इनमें से पहले का प्रतीक 'इतिविसृभिः' कह कर ४.१.१ तथा १.१. इन दो मन्त्रोंके पाठ का भी बिल्कुल वैसेही देदिया है। आदेश किया गया है। इन दो मन्त्रोंके अधिक बहुत सम्भव है किसी समय अद्भुत विषयक बतानेकी कल्पना निसन्देह बाद की है और बिल्कुल शकुनोपशकुन शास्त्र अथर्ववेदके विषय प्रान्तोंमें ही परिशिष्टके रूपमें है। इसका मुख्य कारण यही कहींपर स्वतन्त्र रूपसे रहा होगा किन्तु इस प्रकार है कि किसी भी युक्तिद्वारा इस वेदको भी अन्य के संग्रहों में मिलाने योग्यहोने के कारण वह श्रत | वेदोंकी श्रेणी में सम्मिलित करना था और इसका भूत किया गया होगा । इसी भाँति पारस्कर गृह्य स्थान अन्य धर्मग्रंथोंको दृष्टिमें महत्वपूर्ण तथा सूत्रोंमें अद्भुत विषय सम्बन्धी तीन अध्यायोंका अभेद्य बनानाथा इस कंडिकाका मुख्य ग्रंथके अन्त- भी अन्तर्भाव किया होगा। किन्तु न जाने क्यों प्रो० भागनहोनेका पारिभाषिक प्रमाण १३९-१० मै श्राये स्टेप्लरने अपने सम्पादनसे वृथाही वे अध्याय हुए त्रिषतीय' शब्दसे मिलता है। कौशिक ७, ८ निकाल डाले । यद्यपि १३ वै अध्याय , को ग्रंथमै एकपारिभाषिक सूक्त है। इसमें बताया गया है कि मिलाने का प्रयत्न वड़ी सावधानी तथा कुशलता ग्रंथके बादके भागोंमें 'पूर्वम्' अर्थात् सूक्तम्' शब्द से किया गया है किन्तु इस बात का चिन्ह विल्कुल त्रिषप्तीय सूक्तके लिये योग्य होनेके कारण व्यव. भी लुप्त करनेमें समर्थ नहीं हुए। हारमें लाया गया है। जहाँ जहाँ इस सूक्तका यद्यपि सरसरी तौर से देखनेसे यह एक दम वर्णन पाया है वहाँ वहाँ सारे अंथमें इस परि- स्पष्ट न दिखाईदे किन्तु फिर भी यह बहुत सम्भव भाषाका जी खोल कर प्रयोग किया गया है। है कि चौदहवाँ अध्याय भी कौशिक सूत्र का देखिये १०.१, ११. १, १२, १०, १४.१, १६,५, १८, अन्तिम स्तर होगा। अथवा मुख्यग्रंथ पूरा होनेपर १,१६, ३२. २८ । इससे कमसे कम इतनातो कहा संस्करण कर्त्ताओने पहले पांच ऐसे अध्याय | ही जा सकता है कि अन्य अध्यायोंमें यह ठीक इनमें मिलाये होगे जो इनकेही समान तो अवश्य रीतिसे नहीं मिलाया गया है। उपरोक्त तथा होगें किन्तु उनमें विषय भिन्न भिन्न रहे होंगे। इससे यह स्पष्ट सिद्ध है कि यह अध्याय बादका फिर चौदहवे और बारहवेके बीचमें १३ वाँ जोड़ा हुआ है। अध्याय धुसेड़ने की कोई आवश्यकता भी नहीं यही स्थिति १३८ कंडिकाकी है। इसमें अष्टका' देख पड़ती। यदि यह कहा जाय कि १३ वाँ विधिके लम्बे लम्बे वर्णन हैं, परन्तु यही विधि अध्याय परिशिष्ट और बहुत बादका है तो यह भी पहलेही १६.२८ मैं सूत्र भाषामै श्राचुकी है । केशव मानना पड़ेगा कि १४ वाँ अध्याय भी तेरहवें के ध्यानमें यह पाया है कि तत्वतः ये दोनों वर्णन अध्यायके साथही साथ जोड़ा गया है। इन एकही विधिके हैं। उसने १६वीं कंडिकामें एक अध्यायों को अतस्थपूर्तिसे उपरोक्त बाते पुष्ट होती स्थान पर इन दोनोंका विवेचन किया भी है। हैं। १४१ वीं कंडिकामे वेदपठनके नियम अपभ्रष्ट १३८ वीं कंडिकाके बाद में जोड़ी जानेमें तो कोई स्वरूपमे दिये हैं तथा उनके बीच बीचमै गद्यतथा सन्देह है ही नहीं । १४०वीं कंडिकाका विषय पद्य का मिश्रण है। यह स्पष्ट है कि इनका "इंद्र महोत्सव' है और उसकी भाषा शैलि परभी ,