पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१९२

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अथर्ववेद ज्ञानकोश,(अ) १७६ अथर्ववेद कह सकते हैं कि जिस समय ये प्राचार सूत्रों को लगभग गद्यपरिशिष्टोंके लेखके समान कह मिलाये गये उसी समय लगभग सब शाखाओंकी | सकते हैं। अथर्वसंहिता मुख्यतः तय्यार हुई होगी। दूसरी कपालेनांगारा भवन्ति-अनारकल्प १३५. १, बात यह है कि ये सूत्र वैतान सूत्र इत्यादिसे पहले अथवा चतस्त्रो धेन्वा अपकृप्ताभयन्ति, पिता का है और उन्होंने उनकी बातोको माना है। कृष्णा रोहिणीसुरूपा चतुर्थी १२०. १, १२६, ५, वैतानको अथर्ववेदी श्रोताकी एक छोटी सी इस भाँतिके वाक्य अथर्धसूत्रोंमें नहीं देख पड़ेगे। पुस्तक कह सकते हैं। इसकी रचना ऐसे समय 8७.७ मै दिये हुए वाक्य अपेत एतु नितिर इत्य. में हुई थी जिस समय इसको भी सर्वमान्य वेदों | तेनसुक्ने, तथा उसके आगेके सम्पूर्ण पाठोंके सूक्त के प्रान्तोंमें प्रवेश करना था। इसी कारण वेद बहुत स्पष्ट दिये हुए है। इनकी भाषा भी बहुत के यज्ञोकी विवेचना करनेवाले एक स्वतन्त्र ग्रन्थ अच्छी नहीं है । १०४. ३, ११३. ३, १२३.१, १३३. की आवश्यकता हुई। यह बताना कठिन है कि २, के एताभ्यां सूक्ताभ्याम्'; १९३१ के एतेत्रिमिः कौशिक तथा वैतानके सूत्रोंके संस्करणके बीच सूक्तैः; १३६. ६ के इति एताभ्यां (ऋग्भ्याम् ); कितना समय बीता । ब्लूमफील्डका कथन है कि ११२५ के 'इति एताभिः चतसृभिः (ऋभिः) अथर्ववेदके साम्प्रदायिक विचारोको व्यवस्थित के विषयमें भी उपरोक्त ही धारणा की जासकती करना तथा सूत्र रूपमें परिवर्तित करने का प्रयत्न है। १३ वें अध्यायमें भाषा अधिक स्पष्टं तथा अर्थात् कौशिक सूत्रका निर्माण बहुत बादके समय क्लिष्ट देख पड़ती है १३ वी कंडिकामें विषयोंकी का है। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें अनुक्रमाणिका अलग देकर इस अद्भुत विषयके बताये हुए आचार भी बादके ही हैं। इस वेद अध्याय का आरम्भ किया है (इससे यह स्पष्ट की विधियोंका स्वरूप ही ऐसा है कि मन्त्रोंका है कि यह अध्याय अवश्य ही स्वतन्त्र रीतिसे पठन तथा कृतियाँ अच्छी तरहकी जाँय । बहुत | तय्यार किया गया है। ऐसी अवस्थामें यह कहा से सूक्त अथर्ववेदके ऐसे हैं जो बिना पूर्ण क्रियांके जा सकता है कि कौशिकसूत्रके संस्करण कर्ताओं (उच्चारणके साथ हाथ उठाना गिराना इत्यादि ) | ने इस अध्याय को जिस रूप में प्राप्त किया होगा पढ़े ही नहीं जा सकते। कौशिक सूत्र एक ही उसी रूपमें अपने ग्रंथोमें मिला लिया होगा। साथ तय्यार किया गया होगा। आज जो ग्रन्थ प्रो० बेवर का भी यही मत है ब्लूमफील्ड भी इसी का स्वरूप है वह किसी एक ही समयमें एकत्रित मत को मनता है। कौशिक सूत्रोंके अन्तर भागों में करके ग्रन्थरूपमें रख दिया गया होगा। ग्रन्थका जो भिन्नता देख पड़ती है तथा भिन्न भिन्न ग्रंथकारों इससे भी कोई प्रावीनरूप रहा होगा। ब्लूमफील्ड के भिन्न भिन्न भाग मालूम पड़ते हैं उसका कारण इस बातको माननेको तय्यार नहीं हैं कि ग्रन्थके यही है कि इन संस्करण कोने उन्हें ठीक अन्तिम संस्करणके बाद स्थान स्थान पर अन्य । रीतिसे मिलाने का प्रयत्नही नहीं किया। तौभी भाग मिलाये गये होंगे। बल्कि जो विषय इस उन भिन्नताओमें बहुत सी समानता है। कहीं ग्रन्थमै जोड़े गये हैं वे स्वतन्त्र रूपसे भिन्न भिन्न! कहीं पर तो सूत्रकारोंने अपने भरसक ग्रंथोंमें स्थानोंसे ही आये हुए होंगे। यह बात भी स्पष्ट , दिये हुए विषयों में साम्यता लाने का प्रयत्न भी ही है कि इन संस्करणकारोंने उन्हें इस भांति नहीं किया है। अध्याय १३ में चातन गण (१६६.६) जोड़ा है कि विभिन्न काल तथा कर्ताका कार्य मातृनामानि सूक्तानि ( ६४.१५, १५१. ६६.३, १०१ स्पष्ट न दिखाई दे। ३, ११४.३, १३६,६ ) तथा तिवास्तोष्यतीयानि शकुन अपशकुन-सम्बधी तेरहवाँ अध्याय सुक्तानि,' ( १२०. ६) आया है। इसमें यह स्पष्ट पूर्ण संहिताके विषयोंसे बिल्कुल भिन्न होनेके है कि उस अध्याय का लेखक अवशिष्ट ग्रंथ, एवं कारण स्वतन्त्र मालूम होता है। इन अध्यायोंके उस शाखाके परिभाषिक शब्दोंसे पूर्ण परिचित सूक्त स्वतन्त्र हैं। यह अथर्ववेद के धीच व्याख्या था। यह कह कर इस सम्बन्धमै निर्णय किया जा किये हुए भागोंसे बिल्कुल विपरीत है। प्रत्येक सकता है कि क्योंकि ११८.१ में शौनक संहिता का अपशकुन को दूर करनेके लिये प्रतीको द्वारा एक मन्त्र संग्रह उसके प्रतीकके साथ दिया है दिखाये हुए अथर्ववेदके मन्त्र सामान्यतः अप्रधान | इसलिये तेरहवें अध्यायके पहले-अर्थात् ६१.१के करके माने हुए प्रतीत होते हैं। इस अध्याय की सकल पाठके पहले इसका अवतरण कियागया भाषा भी कुछ इस प्रकार की है कि वह सूक्तग्रंथों होगा। इस प्रकार का दूसरा उदाहरण यह है:- में ठीक ठीक नहीं खपती । इस की लेखन शैली || १३३.७ में भवन्तं नः समनसौ समोकसों का 1