पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१०७

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अजशृङ्गी ज्ञानकोश (अ)६४ अजातशत्रु हैं। इसकी उत्पत्ति मुख्यतः भारतवर्ष में और रोगमें किया जाता है। इसकी लतायें खंडाला- विशेषकर बंगालमें होती है। मिश्र, ईगन और घाट अथवा अन्य पहाड़ों पर बहुत पायी जाती अफगानिस्तान में भी पैदा होती है। यूरोपमै यह हैं। यह कफको नाश करती है और वमनद्वारा हाल ही में गयी है। फ्रांसके राजा चौदहवे लुईकं । बाहर निकाल देती है। इसकी छाल भी अनेक राजवैद्य पोमेटाइन्नेने लिखा है कि अच्छी अज- श्रौषधियाँ बनानेके काममें आती है। (पदे-वन- वाइन क्रीट' या ( Alexandrit) सिकन्दिरियासे , स्पति गुणादर्श) श्राती है। अजामिल--पूर्वीय कान्यकुञ्ज देशका रहने. उत्पत्ति-भारतवर्षमें यह अक्तूबर या नवंबर | वाला एक ब्राह्मण होगया है। यह अपने माता में गोई जाती है। पालीके किनारे इसके रोप पिता तथा विवाहित स्त्रीका त्याग कर एक शूद्र (पेड़) लगाते हैं। हर एक पौदेमें छः इंचका | स्त्रीके साथ रहने लगा था। इसने अपना लग- फासला रखते हैं। अच्छी खादकी उतनो जरूरत भग सम्पूर्ण जीवन उसीके साथ भोग विलासमें नहीं है, पर पानी काफी चाहिये। अजवाइन व्यतीत कर दिया था। एक समय वह अपने बागोंमें होती है। पेड़ हाथ डेढ़ हाथ ऊँचा | कनिष्ठ-पुत्र नारायणको पुकारनेकी इच्छासे जब होता है। इसका अर्क निकाला जाता है जिसे उसके समीप गया तो उसने विष्णुदृत और यम- अजवाइनका सत कहते हैं। मध्यभारतमें इंदौर | दृतको अपने ही विषयमें करते सुना । इस के पास यह सत बहुत मिलता है। सत निका- सुनकर उसे घोर पश्चात्ताप हुआ और कठोर लनेके नये ढंगके कारखाने कलकत्ता या बंबई में प्रायश्चितकी इच्छास उस शद्रवर्णा स्त्री तथा हैं। बंबई इलाके में हरसाल ५००-६०० एकड़मै | उसकी सन्ततिका परित्याग करके वह गंगाके यह बोई जाती है। मध्य प्रांतमें नेमाड़, मद्रास तीर पर पाकर नियमपूर्वक संयमके साथ भगवान- में नंदियाल घाटी ( Valley ) मै और तिनावल्ली | भजन करने लगा। इससे अंतमें उसे उत्तम लोक जिलेमें भी पैदा होती है। गुजरातके खेडा जिलेमें प्राप्त हुश्रा (भाग० षष्ठ अ० १.२) भी यह जीरेके साथ बोई जाती है। जीरा पहले अजात शत्र-( लगभग ई० पू०५५१-५२७) तय्यार हो जाता है और ३०-४० दिन बाद श्रज यह शिशुनाग वंशका छठवाँ राजा था। इन भी पक जाती है। पूना जिलेमें मूंगफलीके यह लगभग ई० पू० ५५४ में मगध देशकी साथ इसे बोते हैं। जब मूंगफली पैदा होने गद्दी पर बैठा । (देखो बुद्धोचर जग० पृ० १६६, लगती है तो इसका विया चो दिया जाता है। १७१-१७२ और १४३ ) इसके अन्य नाम कुणिक औसत एक एकड़में दो मनके करीब निकलती और कुणीय भी हैं। जिस प्रकारसे इसे राज्य है। बंबईकी श्रृजवाइनके खरीदार मिस्त्र, जर्मनी प्राप्त हुआ उस विषयमें इतिहासकारोंमें मतभेद और अमेरिका है। अजवाइनका अर्क निकालने | है। जैन-दन्त-कथाके अनुसार चिम्बसारके वृद्धा- पर भी उसमें १५ से लेकर १७ फीसदी श्रोजस | वस्था प्राप्त करने पर उसका पुत्र (अजातशत्रु ) (द्रव्य ) रहता है और इसकी दूनी मात्रामै चिकः | उसकी श्राक्षानुसार राज्यका मालिक हुआ। नाहट रहती है, इसलिये इसकी सीठी मवेशियो ब्राह्मण तथा बौद्धोंका मत है कि राज्य के लोभसे को खिलाई जाती है। अपने पिताका बध करके वह राजगद्दी पर बैठा तेल-तेल साफ और बेरंगका होता है। कुछ था। पुगणकी वुद्ध कथामें वर्णित है कि गौतम- दिन बाद जरा सा पीलापन आ जाता है । इसकी | बुद्धके शालक देवदत्तके चिढ़ाने पर यह कृत्य सुगंध अजवाइन ही की तरह होती है। स्वादमै किया गया था (हीस डेविडस् बुद्धिस्टिक जरा सी तिताई होती है। पेटकी बीमारीमै तीन | इण्डियो) । वी० स्मिथके मतानुसार अजातशत्रु बूंद शकर या गोदके पानीके साथ देना चाहिये। की पितृ-वधकी कथा बिल्कुल बनावटी है अजशृङ्गी-( मेढासिंगी) इस वनस्पतिकी (श्राक्स फोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया ) । बिम्ब- लतायें होती हैं। इसको संस्कृतमें मेषशृंगी सारके समयमै वर्धमान महावीर और गौतमबुद्ध मराठीमें मैढशिंगी, हिन्दीमें अजशृङ्गी या मेढ़ा- दोनों ही महान् धर्मप्रचारक अपने अपने धर्मका सिंगी इत्यादि कहते हैं। इस वनस्पतिका रस मगधदेशमें प्रचार कर रहे थे। महावीर अजात- दूधके समान स्वच्छ होता है। इसकी लतामें | शत्रुको माताके कुलमै से था। ऐसा अनुमान कांटे होते हैं और फल इसका मेढाके सींगके किया जाता है कि महावीर तथा गौतमवुद्ध दानों समान होता है। मुख्यतः इसका उपयोग नेत्र- ही अजातशत्रुके समयमें परलोक सिंधार होंगे। - -