पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/९८

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फिर क्या था?

लेइ सर ऊपर खाट बिछाई। पौंढ़ी दुवौ कंत गर लाई॥
लागी कंठ आगि हिय होरी। छार भई जरि, अंग न मोरी॥

क्रोध का प्रसंग केवल वहाँ आया है जहाँ राजा रत्नसेन को अलाउद्दीन की चिट्ठी मिलती है। पर वहाँ भी रौद्ररस का विस्तृत संचार नहीं है। क्रोध का वह आवेश नहीं है जिसमें नीति और विचार का पता नहीं रह जाता। चिट्ठी पढ़ी जाने पर—

सुनि अस लिखा उठा जरि राजा। जानहु देव तड़पि घन गाजा॥
का मोहि सिंघ देखावसि आई। कहौं तौ सारदूल धरि खाई॥
तुरुक जाइ कहु मरै न धाई। होइहि इसकंदर कै नाई॥

पर इस उग्र वचन के उपरांत ही राजा अलाउद्दीन के संदेश के औचित्य अनौचित्य की मीमांसा करने लगता है—

भलेहि जौ साह भूमिपति भारी। माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥

रस की रस्म के विचार से तो उपर्युक्त वर्णन पूरा ठहर जाता है क्योंकि इसके अनुभाव के रूप में डाँट डपट और उग्र वचन तथा संचारी के रूप में मौजूद है! यहीं तक साहित्य के आचार्यों ने आत्मावदान कथन अर्थात् अपने मुँह से अपनी बड़ाई को भी रौद्ररस का अनुभव कहा है। आगे वह भी मौजूद है—

हौं रनथँभउर नाथ हमीरू। कलपि माथ जेइ दोन्ह सरीरू॥
ह्रौं सो रतनसेन सकबंधी। राहु बेधि जीता सैरंधी॥
हुनुमत सरिस भार जेइ काँधा। राघव सरिस समुद जेइ बाँधा॥
विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका। सिंहलद्वीप लीन्ह जौ ताका॥
जौ अस लिखा, भयहु नहि ओछा। जियत सिंघ कै गह को मोछा॥

पर यह सामग्री होते हुए भी यह कहना पड़ता है कि रौद्ररस का परिपाक जायसी में नहीं है। न तो अनुभावों और संचारियों की मात्रा ही यथेष्ट है, न स्वरूप ही पूर्ण स्फुट है। जायसी का कोमल भावपूर्ण हृदय उग्र वृत्तियों के वर्णन के उपयुक्त नहीं था।

वीररस का वर्णन अच्छा है। अलाउद्दीन के चित्तौरगढ़ घेरने पर तो केवल सेना की सजावट और तैयारी, चढ़ाई की हलचल तथा युद्ध की घमासान के वर्णन में ही कवि रह गया है, युद्धोत्साह की व्यंजना किसी व्यक्ति द्वारा नहीं कराई गई है। उत्साह की व्यंजना गोरा बादल के प्रसंग में हमें मिलती है। पद्मिनी के विलाप पर दोनों वीरों ने कैसी क्षात्रतेज से भरी प्रतिज्ञा की है—

जौ लगि जियहिं न भागहिं दोऊ। स्वामि जियत कित जोगिन होऊ॥
उए अगस्त हस्ति जब गाजा। नीर घटे घर आइहि राजा॥
बरषा गए अगस्त के दीठी। परै पलानि तुरंगन पीठी॥
बैधौं राहु छोड़ावहुँ सूरू। रहै न दुःख कर मूल अँकूरू॥