छूटे केस, मोति लर छूटीं। जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥
सेंदुर परा जो सीस उघारी। आगि लागि चह जग अँधियारी॥
सूर्यरूपी रत्नसेन अस्त हुआ। पद्मावती के पूर्णचंद्र मुख में एक कला भी नहीं रह गई। पहले एक स्थान पर कवि कह चुका है कि 'चाँदहि कहाँ जोति औ करा? सुरुज के जोति चाँद निरमरा'। जब सूर्य ही नहीं रहा, तब चंद्रमा में कला कहाँ से रह सकती है? काले केश छूट पड़े हैं, मोती बिखरकर गिर रहे हैं—अमावस्या की अँधेरी छा गई है जिसमें नक्षत्र इधर उधर टूटकर गिरते दिखाई पड़ते हैं। वह घने काले केशों के बीच सिंदूर की रेखा दिखाई पड़ी—अब घोर अंधकार के बीच आग भी लगा चाहती है—सती की ज्योति से सारा जगत् जगमगाया चाहता है।
देखिए, पद्मिनी के तात्कालिक रूप में ही कवि ने प्रस्तुत करुण परिस्थितियों की गंभीरता की पूर्ण छाया दिखा दी है। पद्मिनी सारे जगत् के शोक का स्वच्छ आदर्श हो गई जिसमें सारे जगत् के गंभीर शोक का प्रशांत स्वरूप दिखाई पड़ता है। कुछ काल के लिये पद्मिनी के सहित सारा जगत् शोकसागर में मग्न दिखाई पड़ता है। फिर पद्मिनी और नागमती दोनों इस दुःखमय जगत् से मुँह फेरती हैं और उस लोक की ओर दृष्टि करती हैं जहाँ दुःख का लेश नहीं—
दोउ सौति चढ़ि खाट बईठीं। औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी॥
इस जगत् से दृष्टि फेरते ही सारे दुःख द्वंद्व छूट गए हैं। अब न झगड़ा और कलह है, न क्लेश और न संताप? दोनों सपत्नी एक साथ मिलकर दूसरे लोक में पति से जा मिलने की आशा से परिपूर्ण और शांत दिखाई पड़ती हैं और सती होने जा रही हैं। आगे बाजा बजता चलता है। यह प्रेममार्ग के विषय का बाजा है—
एक जो बाजा भएउ बियाहू। अब दुसरे होइ ओर निबाहू॥
रत्नसेन की चिता तैयार है। दोनों रानियाँ चिता की सात प्रदक्षिणा करती हैं। एक बार जो भाँवरी (विवाह के समय) हुई थी उससे इस संसार यात्रा में रत्नसेन का साथ हुआ था; अब इस भाँवरी से परलोक के मार्ग में साथ हो रहा है—
एक जो भाँवरि भई बियाही। अब दुसरै होइ गोहन जाही॥
जियत कंत! तुम हम्ह घर लाई। मुए कंठ नहि छाँड़हि साँई॥
अही जो गाँठि कंत! तुम जोरी। आदि अंत लहि जाइ न छोरी॥
एहि जग काह जो अछहि न आथी। हम तुम नाह? दुवौ जग साथी॥
सतियों के मुख पर आनंद की शुभ्र ज्योति दिखाई पड़ती हैं। इस लोक से मुँह मोड़ अब वे दूसरे लोक के मार्ग के द्वार पर खड़ी हुई हैं। इस लोक की अग्नि में अब उन्हें क्लेश और ताप पहुँचाने की शक्ति नहीं रही है। उनके लिये वह सबसे शीतल करनेवाली वस्तु हो गई है क्योंकि वह पतिलोक का द्वार खोला चाहती है। हिंदू सती का यह कैसा गंभीर, शांत और मर्मभेदी उत्सव है!
आज सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़॥
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़॥