समय रणक्षेत्र में जाने को तैयार होता है, उस समय माता की यह 'शंका' बहुत ही स्वाभाविक है—
बादल राय मोर तुइ बारा। का जानसि कस होइ जुझारा॥
बादसाह पुहुमीपति राजा। सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥
बरसहि सेल बान घन घोरा। धीरज धीर न बाँधिहि तोरा॥
जहाँ दलपती दलमलहिं, तहाँ तोर का काज?
आजु गवन तोर आवै, बैटि मानु सुख राज॥
शंका तक पहुँचता हुआ यह 'अनिश्चय' प्रेमप्रसूत है, गूढ़ रति भाव का द्योतक है—
ह्वेयर लव इज ग्रेट, दि लिटिलेस्ट डाउट्स आर फियर्स।
ह्वेयर लिटिल फियर्स ग्रो ग्रेट, ग्रेट लव इज देअर।
—शेक्सपियर
मायके के स्वाभाविक प्रेम की कैसी गंभीर व्यंजना इन पंक्तियों में है—
गहबर नैन आए भरि आँसू। छाँड़ब यह सिंघल कैलासु॥
छाँड़िउँ नैहर, चलिउँ बिछोई। एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई॥
छाँड़िउँ आपनि सखी सहेली। दूरि गवन तजि चलिउँ अकेली॥
नैहर आइ काह सुख देखा। जनु होइगा सपने कर लेखा॥
मिलहु सखी हम तहँवाँ जाहीं। जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं॥
हम तुम मिलि एकै सँग खेला। अंत बिछोह आनि गिउ मेला॥
दूती और पद्मावती के संवाद में पद्मावती द्वारा पातिव्रत की बड़ी ही विशद व्यंजना हुई है। पातिव्रत कोई एक भाव नहीं है। वह धर्म और पूज्यबुद्धि मिश्रित दांपत्य प्रेम है। उसके अंतर्गत कभी रतिभाव की व्यंजना होती है, कभी प्रिय के महत्व को प्रकाशित करनेवाले पूज्य भाव की, कभी प्रिय के महत्व के गर्व की और कभी धर्मानुराग की। पहले पद्मावती उस दूती को अपने अनन्य प्रेम की सूचना इस प्रकार देती है—
अहा न राजा रतन अँजोरा। केहि क सिंघासन केहि क पटोरा॥
चहुँ दिसि यह घर भा अँधियारा। सब सिँगार लेइ साथ सिधारा॥
काया बेलि जानु तब जामी। सीँचनहार आव घर स्वामी॥
इसपर जब दूती दूसरे पुरुष की बात कहती है तब वह क्रोध से तमतमा उठती है और धर्म के तेज से भरे ये वचन कहती है—
रँग ताकर हौं जारौं काँचा। आपन तजि जो पराएहि राँचा॥
दूसर करै जाइ दुइ बाटा। राजा दुइ न होंहि एक पाटा॥
साथ ही अपने पति का महत्व दिखाती हुई उसपर इस प्रकार गर्व प्रकट करती है—
कुल कर पुरुष सिंह जेहि केरा। तेहि थल कैस सियार बसेरा?॥
हिया फार कूकुर तेहि केरा। सिंघहि तजि सियार मुख हेरा॥