पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/९०

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बादशाह अलाउद्दीन के सामने। दोनों स्थानों पर वर्णन नखशिख की प्रणाली पर और सादृश्यमूलक है अतः उसका विचार अलंकारों के अंतर्गत करना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। यहाँ पर केवल उन दो चार स्थलों का उल्लेख किया जाता है जहाँ सौंदर्य के सृष्टिव्यापी प्रभाव की लोकोत्तर कल्पना पाई जाती है, जैसे—

सरवर तीर पदमिनी आई। खोपा छोरि केस मुकलाई॥
ओनई घटा, परी जग छाहाँ।
बेनी छोरि झार जौ बारा। सरग पतार होइ अँधियारा॥

केशों की दीर्घता, सघनता और श्यामता के वर्णन के लिये सादृश्य पर जोर न देकर कवि ने उनके प्रभाव की उद्भावना की है। इस छाया और अंधकार में माधुर्य और शीतलता है, भीषणता नहीं।

पद्मावती के पुतली फेरने से उत्पन्न इस रस-समुद्र-प्रवाह को तो देखिए—

जग डोलै डोलत नैनाहाँ। उलटि अड़ार जाहिं पल माहाँ॥
जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा। अस वै भँवर चक्र कै जोरा॥
पवन झकोरहिं देहि हिलोरा। सरग लाइ भुँईं लाइ बहोरा॥

उसके मंद मृदु हास के प्रभाव से देखिए कैसी शुभ्र उज्वल शोभा कितने रूप धारण करके सरोवर के बीच विकीर्ण हो रही है—

बिगसा कुमुद देखि ससि रेखा। भइ तहँ ओप जहाँ जो देखा॥
पावा रूप, रूप जस चहा। ससिमुख सहुँ दरपन होइ रहा॥

नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन ज्योति नग हीर॥

पद्मावती के हँसते ही चंद्रकिरण सी आभा फूटी इससे सरोवर के कुमुद खिल उठे। यहीं तक नहीं, उसके चंद्रमुख के सामने वह सारा सरोवर दर्पण सा हो उठा अर्थात् उसमें जो जो सुंदर वस्तुएँ दिखाई पड़ती थीं वे सब मानो उसी के अंगों की छाया थीं। सरोवर में चारों ओर जो कमल दिखाई पड़ रहे थे वे उसके नेत्रों के प्रतिबिंब थे; जल जो इतना स्वच्छ दिखाई पड़ रहा था वह उसके स्वच्छ निर्मल शरीर के प्रतिबिंब के कारण। उसके हास की शुभ्र कांति की छाया वे हंस थे जो इधर उधर दिखाई पड़ते थे और उस सरोवर में (जिसे जायसी ने एक झील या छोटा समुद्र माना है) जो हीरे थे वे उसके दशनों की उज्वल दीप्ति से उत्पन्न हो गए थे। पद्मावती का रूपवर्णन करते करते फिर अनंत सौंदर्य सत्ता की ओर कवि की दृष्टि जा पड़ी है। जिसकी भावना संसार के सारे रूपों को भेदती हुई उस मूल सौंदर्यसत्ता का कुछ आभास पा चुकी है। वह सृष्टि के सारे सुंदर पदार्थों में उसी का प्रतिबिंब देखता है।

इसी प्रकार उस 'पारस रूप' का आभास—जिसके छायास्पर्श से यह जगत् रूपवान् है—जायसी ने उस स्थल पर भी दिया है जहाँ अलाउद्दीन ने दर्पण में पद्मावती के स्मित आनन का प्रतिबिंब देखा है—

बिहँसि झरोखे आइ सरेखी। निरखि साह दरपन महँ देखी॥
होतहिं दरस, परस भा लोना। धरती सरग भएउ सब सोना॥