प्रेम के स्वरूप का दिग्दर्शन जायसी ने स्थान स्थान पर किया है। कहीं तो यह स्वरूप लौकिक ही दिखाई पड़ता है और कहीं लोकबंधन से परे। पिछले रूप में प्रेम इस लोक के भीतर अपने पूर्ण लक्ष्य तक पहुँचता हुआ नहीं जान पड़ता। उसका उपयुक्त आलंबन वही दिखाई पड़ता है जो अपने प्रेम से संपूर्ण जगत् की रक्षा करता है।
प्रिय से संबंध रखनेवाली वस्तुएँ भी कितनी प्रिय होती हैं! प्रिय की ओर ले जानेवाला मार्ग नागमती को कितना प्रिय होगा, उसी के मह से सुनिए--
वह पथ पलकन्ह जाइ बोहारौं। सीस चरन के चलौं सिधारौं।।
पथ पर पलक बिछाने या उसे पलकों से बहारने की बात उस अवसर पर कही जाती है जब प्रिय उस मार्ग से आने को होता है, पर जहाँ उस मार्ग पर चलने के लिये नागमती ही तैयार है, जैसा कि प्रसंग के पढ़ने से विदित होगा (दे० पद्मावती नागमती विलाप खंड), तो क्या वह अपने चलने के आराम के लिये सफाई करने को कह रही है? नहीं, उस मार्ग के प्रति जो स्नेह उमड़ रहा है, उसकी झोंक में कह रही है। जो मार्ग प्रिय की ओर ले जायगा उसपर भला पैर कैसे रखेगी, वह उसपर सिर को पैर बनाकर चलेगी। प्रिय के संबंध से कितनी वस्तुओं से सुहृद् भाव स्थापित हो जाता है। सच्चे प्रेमी को प्रिय ही नहीं, जो जो कुछ उस प्रिय का होता है, सब प्रिय होता है। जिसे यह जगत् प्रिय नहीं, जो इस जगत् के छोटे बड़े सबसे सद्भाव नहीं रखता, जो लोक की भलाई के लिये सब कुछ सहने को तैयार नहीं रहता, वह कैसे कह सकता है कि ईश्वर का भक्त हूँ? गो० तुलसोदास जी कहते हैं कि मैं भी वह भक्तजीवन प्राप्त कर सकेंगा और--
‘पर हित निरत निरंतर मन क्रम बचन नेम निबहौंगो?
यह दिखाया जा चुका है कि रत्नसेन पद्मावती का प्रेम विषम से सम की ओर प्रवृत्त हुआ है जिसमें एक पक्ष की कष्टसाधना दूसरे पक्ष में पहले दया और फिर तुल्य प्रेम की प्रतिष्ठा करती है। साधना का फलारंभस्वरूप उस दया को सूचना पाने पर, जो तुल्यानुराग का पूर्वलक्षण है, रत्नसेन को समागम का सा हो आनंद होता है, उसकी संजीवनी शक्ति से वह मूर्छा से जाग उठता है--
सुनि पदमावति कै असि मया। भा बसंत, उपनी नइ कथा।।
सुया क बोल पवन होइ लागा। उठा सोइ, हनुवँत अस जागा।।
तुल्यानुराग की सूचना के अद्भुत प्रभाव का अनुभव राजा पुरूरवा ने भो उस समय किया है जब उर्वशी ने अदृश्य भाव से भोजपत्र पर अपने अनुराग को दशा लिखकर गिराई है--
तुल्यानुरागपिशुनं ललितार्थबंधं पत्रे निवेशितमुदाहरणं प्रियायाः।
उत्पक्ष्मणा, मम सखे! मदिरेक्षणायास्तस्याः समागतमिवाननमाननेन।
(विक्रमोर्वशो, अंक २)
राजा रत्नसेन ने 'अनुराग' शब्द का प्रयोग न करके 'मया' शब्द का प्रयोग किया है। यह उसके प्रेम के विकास के हिसाब से बहुत ठीक है। पहले पद्मावती को