की भी व्यंजना है वहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि एक पक्ष की वस्तु दूसरे पक्ष की दूसरी वस्तु को व्यंजित करती है अथवा एक पक्ष का भाव दूसरे पक्ष के दूसरे भाव को व्यंजित करता है। विचार के लिये यह पद्य लीजिए—
पिउ हिरदय महुँ भेंट न होई। को रे मिलाव, कहौं केहि रोई॥
ये पद्मावती के वचन हैं जिनमें रतिभाव व्यंजक 'विषाद' और 'औत्सुक्य' की व्यंजना है। ये वचन जब भगवत्पक्ष में घटते हैं तब भी इन भावों की व्यंजना बनी रहती है। इस अवस्था में क्या हम कह सकते हैं कि प्रथम पक्ष में व्यंजित भाव दूसरे पक्ष में उसी भाव की व्यंजना करता है? नहीं; क्योंकि व्यंजना अन्य अर्थ की हुआ करती है, उसी अर्थ की नहीं। उक्त पद्य में भाव दोनों पक्षों में ही हैं। आलंबन भिन्न होने से भाव अपर (अर्थात् अन्य और समान; समानता अपरता में ही होती है) नहीं हो सकता। प्रेम चाहे मनुष्य के प्रति हो चाहे ईश्वर के प्रति, दोनों पक्षों में प्रेम ही रहेगा। अतः यहाँ वस्तु से वस्तु ही व्यंग्य है और भावव्यंजना का विधान दोनों पक्षों में अलग अलग माना जायगा।
पहले तो पद्मावती और रत्नसेन के पक्ष में वाच्यार्थ की प्रतीति के साथ ही असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य द्वारा उन दो भावों (विषाद और औत्सुक्य) की प्रतीति होती है। इसके उपरांत हम फिर प्रथम पक्ष के वाच्यार्थ से चलकर लक्ष्यक्रम व्यंग्य द्वारा दूसरे पक्ष की इस वस्तु पर पहुँचते हैं—'ईश्वर तो अंतःकरण में ही है, पर साक्षात्कार नहीं होता। किस गुरु से कहें जो उपदेश देकर मिलावे।' इसमें अन्य आलंबन का ग्रहण है अतः यह वस्तुव्यंजना हुई। इस प्रकार दूसरे पक्ष की व्यंग्य वस्तु पर पहुँचकर हम चट उसके व्यंग्य भाव (ईश्वरप्रेम) पर पहुँच जाते हैं। मतलब यह है कि एक पक्ष से दूसरे पक्ष पर हम वस्तुव्यंजना द्वारा ही आते हैं। यह वस्तुव्यंजना अधिकतर अर्थशक्त्युद्भव ही है, शब्दशक्त्युद्भव नहीं—अर्थात् अर्थ के सादृश्य से ही लक्ष्यक्रम व्यंग्य जायसी में मिलता है, श्लेष के सहारे पर नहीं।कहीं एक आध जगह ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें शब्द के दोहरे अर्थ से कुछ काम लिया गया है जैसे—
जो यहि खीर समुद मह् परे,। जीव गँवाइ हंस होइ तरे॥
यहाँ 'हंस' शब्द का पक्षी भी अर्थ है और उपाधिमुक्त शुद्ध आत्मा भी।
जैसा कि कह आए हैं, भगवत्पक्ष में घटनेवाले व्यंग्यार्थगर्भ वाक्य बीच बीच में बहुत से हैं। हीरामन तोते के मुँह से पद्मिनी का रूपवर्णन सुन राजा उसके ध्यान में बेसुध हो गया। पर राजा केवल संसार के देखने में बेसुध था। अपने ध्यान की गंभीरता में, समाधि की अवस्था में, उसे उस समय परम ज्योति के सामीप्य की आनंदमयी अनुभूति हो रही थी जिसके भंग होने का दुःख वह सचेत होने पर प्रकट करता है—
आवत जग बालक जस रोवा। उठा रोइ 'हा ज्ञान सो खोवा'॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ। इहाँ मरनपुर आएउ कहाँ?
केइ उपकार मरन कर कीन्हा। सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा॥