अब यदि कवि के स्पष्टीकरण के अनुसार व्यंग्य अर्थ को ही प्रधान या प्रस्तुत मानें तो जहाँ जहाँ दूसरे अर्थ भी निकलते हैं, वहाँ वहाँ अन्योक्ति माननी पड़ेगी। पर ऐसे स्थल अधिकतर कथा के अंग हैं और पढ़ते समय कथा के प्रस्तुत होने की धारणा किसी पाठक को हो नहीं सकती। अतः इन स्थलों के वाच्यार्थ को अप्रस्तुत नहीं कह सकते। इस प्रकार वाच्यार्थ के प्रस्तुत और व्यंग्यार्थ के अप्रस्तुत होने से ऐसी जगह सर्वत्र 'समासोक्ति' ही माननी चाहिए। 'पद्मावत' के सारे वाक्यों के दोहरे अर्थ नहीं हैं, सर्वत्र अन्य पक्ष के व्यवहार का आारोप नहीं है। केवल बीच बीच में कहीं कहीं दूसरे अर्थ की व्यंजना होती है। ये बीच बीच आए हुए स्थल, जैसा कि कहा जा चुका है, अधिकतर तो कथाप्रसंग के अंग हैं जैसे—सिंहलद्वीप की दुर्गमता और सिंहलद्वीप के मार्ग का वर्णन, रत्नसेन का लोभ के कारण तूफान में पड़ना और लंका के राक्षस द्वारा बहकाया जाना। अतः इन स्थलों में वाच्यार्थ से अन्य अर्थ जो साधनापक्ष में व्यंग्य रखा गया है वह प्रबंध काव्य की दृष्टि से अप्रस्तुत ही कहा जा सकता है और 'समासोक्ति' ही माननी पड़ती है।
एक छोटा सा उदाहरण लीजिए। राजा रत्नसेन जब दिल्ली में कैद हो गए तब रानी पद्मावती इस प्रकार विलाप करती हैं—
सो दिल्ली अस निबहुर देसू। केहि पूछहूँ, को कहै सँदेसू?
जो कोइ जाइ तहाँ कर होई। जो आवै किछु जान न सोई॥
अगम पंथ पिय तहाँ सिधावा। जो रे गयउ सो बहुरि न आवा॥
प्रबंध के भीतर ये सारे वाक्य प्रस्तुत प्रसंग का वर्णन करते हैं पर इनमें परलोकयात्रा का अर्थ भी व्यंग्य है। यहाँ वाच्यार्थ को प्रस्तुत और व्यंग्यार्थ को अप्रस्तुत मानकर तथा 'कोई किछु जान न' और 'बहुरि न आवा' को दिल्लीगमन और परलोकगमन दोनों के सामान्य कार्य ठहराते हुए, दिल्लीगमन में परलोकगमन के व्यवहार का आरोप करके हम समासोक्ति ही कह सकते हैं।
जहाँ कथाप्रसंग से वस्तुओं के द्वारा प्रस्तुत प्रसंग की व्यंजना होती है वहाँ 'अन्योक्ति' होगी, जैसे—
(क) सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना। गहनै गहा, कँवल कुँभिलाना॥
यहाँ इस 'अप्रस्तुत' के कथन द्वारा राजा रत्नसेन के सिंहलगढ़ पर चढ़ने और पकड़े जाने की व्यंजना की गई है। दूसरा उदाहरण लीजिए—
(ख) कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गयह सुखाइ॥
अबहुँ बेलि फिर पलुहै, जो पिय सींचै आइ॥
यहाँ जल कमल का प्रसंग प्रस्तुत नहीं है, प्रस्तुत है विरहिणी की दशा। अतः यहाँ अप्रस्तुत से प्रस्तुत की व्यंजना होने के कारण 'अन्योक्ति' है।
सारांश यह है कि जहाँ जहाँ प्रबंधप्रस्तुत वर्णन में अध्यात्मपक्ष का कुछ अर्थ भी व्यंग्य हो वहाँ समासोक्ति ही माननी चाहिए। जहाँ प्रथम पक्ष में अर्थात् अभिधेयार्थ में किसी भाव की व्यंजना नहीं है (जैसे मार्ग की कठिनता और सिंहलगढ़ की दुर्गमता के वर्णन में) वहाँ तो वस्तुव्यंजना स्पष्ट ही है, क्योंकि वहाँ एक वस्तुरूप अर्थ से दूसरे वस्तुरूप अर्थ की ही व्यंजना है। पर जहाँ किसी भाव