बाट असूझ अथाह गँभीरी। जिउ बाउर भा फिरे भँभीरी॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाव खेवक बिन थाकी॥
जेठ जरै जग चलै लुवारा। उठहिं बवंडर परहि अँगारा॥
उठै आगि औ आवै आँधी। नैन न सूझ, मरौ दुख बाँधी॥
अपनी भावुकता का बड़ा भारी परिचय जायसी ने इस बात में दिया है कि रानी नागमती विरहदशा में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है और अपने को केवल साधारण स्त्नी के रूप में देखती है। इसी सामान्य स्वाभाविक वृत्ति के बल पर उसके विरहवाक्य छोटे बड़े सबके हृदय को समान रूप में स्पर्श करते हैं। यदि कनकपर्यक, मखमली सेज, रत्नजटित अलंकार, संगमर्मर के महल, खसखाने इत्यादि की बातें होतीं तो वे जनता के एक बड़े भाग के अनुभव से कुछ दूर की होतीं। जायसी ने स्त्री जाति की या कम से कम हिंदू गृहिणी मात्र की सामान्य स्थिति के भीतर विप्रलंभ शृंगार के अत्यंत समुज्वल रूप का विकास दिखाया है। देखिए, चौमासे में स्वामी के न रहने से घर की जो दशा होती है वह किस प्रकार गृहिणी के विरह का उद्दीपन करती है—
पुष्य नक्षत सिर उपर आवा। हौं बिनु नाह; मंदिर को छावा॥
इसी प्रकार शरीर का रूपक देकर बरसात आने पर साधारण गृहस्थों की चिंता और आायोजना की झलक दिखाई गई है—
तपै लागि अब जेठ असाढ़ी। मोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी। भइ बरखा, दुख आागरि जरी॥
बंध नाहिं औ कंध न कोई। बात न आव, कहौं का रोई॥
साँठि नाँठि, जग बात को पूछा। बिनु जिउ फिरै मूँज तनु छूछा॥
भई दुहेली टेक विहूनी। थाँभ नाहिं, उठि सकै न थूनी॥
बरसै मेह चुवहिं नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा॥
कोरौ कहाँ, टाट नव साजा। तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा॥
यह आशिक माशूकों का निर्लज्ज प्रलाप नहीं है; यह हिंदू गृहिणी की विरहवाणी है। इसका सात्विक मर्यादापूर्ण माधुर्य परम मनोहर है। यद्यपि इस बारहमासे में प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की रूढ़ि के अनुसार अलग अलग झलक भर दिखाई गई है, उनका सश्लिष्ट चित्रण नहीं है; पर एक आध जगह कवि का अपना निरीक्षण भी बहुत सूक्ष्म और सुंदर है जिसका उल्लेख वस्तुवर्णन के अंतर्गत किया जायगा।
अब दुःख के नाना रूपों और कारणों की उद्भावना लीजिए। जायसी के विरहोद्गार अत्यंत मर्मस्पर्शी हैं। जायसी को हम विप्रलंभ शृंगार का प्रधान कवि कह सकते हैं। जो वेदना, जो कोमलता, जो सरलता और जो गंभीरता इनके वचनों में है, वह अन्यत्न दुर्लभ है। नागमती सब जीव जंतुओं, पशु पक्षियों में सहानुभूति की भावना करती हुई कहती है—
पिउ सौं कहेहु सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग।
सो धनि विरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग॥