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अंक ४) पर नागमती की दशा पर एक पक्षी को दया आती है। वह उसके दुःख का कारण पूछता है। नागमती उस पक्षी से कहती है—

चारिउ चक्र उजार भए, कोई न सँदेसा टेक।
कहीं विरह दुख आपन, बैठि सुनए दँड एक॥

इसपर वह पक्षी संदेशी ले जाने को तैयार हो जाता है।

पद्मावती से कहने के लिये नागमती ने जो संदेशा कहा है वह अत्यंत मर्मस्पर्शी है। उसमें मानगर्व आादि से रहित, सुखभोग की लालसा से अलग, अत्यंत नम्र, शीतल औौर विशुद्ध प्रेम की झलक पाई जाती है—

पद्मावति सौ कहेहु, बिहंगम। कंत लोभाइ रही करि संगम॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा। मो कहँ दिए दुंद दुख पूरा॥
कबहुँ बिआही सँग ओहि पीऊ। आपुहि पाइ, जानु पर जोऊ॥
मोहि भोग सौं काज न बारी। सौंह दिस्टि कै चाहनहारी॥

मनुष्य के आश्रित, मनुष्य के पाले हुए, पेड़ पौधे किस प्रकार मनुष्य के सुख से सुखी और दुःख से दुःखी दिखाई देते हैं, यह दृश्य बड़े कौशल और बड़ी सहृयदता से जायसी ने दिखाया है। नागमती की विरहदशा में उसके बाग बगीचों में उदासी बरस रही थी। पेड़ पौधे सब मुरझाए पड़े थे। उनकी सुध कौन लेता है? पर राजा रत्‍नसेन के चित्तौर लौटते ही—

पलुही नागमती कै बारी। सोने फूल फूलि फुलवारी॥
जावत पंखि रहे सब दहे। सवै पंखि बोले गहगहे॥

जब पेड़ पौधे सूख रहे थे तब पक्षी भी आश्रय न पाकर ताप से झुलस रहे थे। इस प्रकार नागमती की वियोगदशा का विस्तार केवल मनुष्य जाति तक ही नहीं, पशु पक्षियों और पेड़ पौधों तक दिखाई पड़ता था। कालिदास ने पाले हुए मृग और पौधों के प्रति शकुंतला का स्नेह दिखाकर इसी व्यापक और विशद भाव की व्यंजना की है।

विप्रलंभ शृंगार ही 'पदमावत' में प्रधान है। विरहदशा के वर्णन में जहाँ कवि ने भारतीय पद्धति का अनुसरण किया है, वहाँ कोई अरुचिकारक वीभत्स दृश्य नहीं है। कृशता, ताप, वेदना आदि के वर्णन में भी उन्होंने शृंगार के उपमुक्त वस्तु सामने रखी है, केवल उसके स्वरूप में कुछ अंतर दिखा दिया है। जो पद्मिनी स्वभावतः पद्मिनी के समान विकसित रहा करती थी वह सूखकर मुरझाई हुई लगती है—

कँवल सूख, पखुरी बेहरानी। गलि गलि कै मिलि छार हेरानी॥

इस रूप में प्रदर्शित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति और दया का पूरा अवसर रहता है। पाठक उसकी दशा व्यंजित करनेवाली वस्तु की ओर कुछ देर दृष्टि गड़ाकर देख सकते हैं। मुरझाया फूल भी फूल ही है। अतीत सौंदर्य के स्मरण से भाव और उद्दीप्त होता है। पर उसके स्थान पर यदि चीरकर हृदय का खून, नसें और हड्डियाँ आादि दिखाई जायँ तो दया होते हुए भी इन वस्तुओं की ओर दृष्टि जमाते न बनेगा।