पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/५१

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दुःख सुनाने से भी जी हल्का होगा। सब जीवों का शिरोमणि मनुष्य और मनुष्यों का अधीश्‍वर राजा! उसकी पटरानी, जो कभी बड़े बड़े राजाओं और सरदारों की बातों की ओर भी ध्यान न देती थी, वह पक्षियों से अपने हृदय की वेदना कह रही है, उनके सामने अपना हृदय खोल रही है। हृदय की इस उदार और व्यापक दशा का कवियों ने केवल प्रेमदशा के भीतर ही वर्णन किया है, यह बात ध्यान देने योग्य है। मारने के लिये शत्रु का पीछा करता हुआा क्रोधातुर मनुष्य पेड़ों और पक्षियों से यह पूछता हुआ कहीं नहीं कहा गया है कि 'भाई! किधर गया?' वाल्मीकि कालिदास आादि से लेकर जायसी, सूर, तुलसी आदि भाषाकवियों तक सब ने इस दशा का सन्निवेश विप्रलंभ (या कहीं कहीं करुण) में ही किया है। वाल्मीकि के राम सीताहरण होने पर वन वन पूछते फिरते हैं—

'हे कदब! तुम्हारे फूलों से अधिक प्रीति रखनेवाली मेरी प्रिया को यदि जानते हो तो बताओ। हे बिल्ववृक्ष! यदि तुमने उस पीतवस्त्रधारिणी को देखा हो तो बताओ। हे मृग! उस मृगनयनी को तुम जानते हो?'

इसी प्रकार तुलसी के राम भी वन के पशु पक्षियों से पूछते हैं—

हे खग, मृग, हे मधुकर स्रेनी। तुम देखी सीता मृगनैनी?

कालिदास का यक्ष भी चेतनाचेतन भेद इसी प्रेमदशा के ही भीतर भूला है। इससे यह सिद्ध है कि कविपरंपरा के बीच यह एक मान्य परिपाटी है कि इस प्रकार की दशा का वर्णन प्रेमदशा के भीतर ही हो।

इस संबंध में मामूली तौर पर तो इतना ही कहना काफी समझा जाता है कि 'उन्माद' की व्यंजना के लिये इस प्रकार का आाचरण दिखाया जाता है। 'उन्माद' ही सही, पर एक खास ढर्रे का है। इसका आविर्भाव प्रेमताप से पिघलकर फैले हुए हृदय में ही होता है। संबंध का मूल प्रेम है, अतः प्रेमदशा के भीतर हो मनुष्य का हृदय उस संबंध का आभास पाता है जो पशु, पक्षी, द्रुम, लता आादि के साथ अनादि काल से चला आ रहा है।

नागमती उपवनों में रोती फिरती है। उसके विलाप से घोसलों में बैठे हुए पक्षियों की नींद हराम हो गई है—

फिरि फिरि रोव, कोइ नहिं डोला। आधी रात विहंगम बोला॥
तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी। केहि दुख रैनि न लावसि आँखी॥

और कवियों ने पशुपक्षियों को संबोधन भर करने का उल्लेख करके बात और आगे नहीं बढ़ाई है जिससे ऊपर से देखनेवाली का ध्यान 'उन्माद' की दशा ही तक रह जाता है। पर जायसी ने जिस प्रकार मनुष्य के हृदय में पशुपक्षियों से सहानुभूति प्राप्त करने की संभावना की है, उसी प्रकार पक्षियों के हृदय में सहानुभूति के संचार की भी। उन्होंने सामान्य हृदय तत्व की सृष्टिव्यापिनी भावना द्वारा मनुष्य और पशुपक्षी सबको एक जीवनसूत्र में बद्ध देखा है। राम के प्रश्‍न का खग, मृग और मधुकर कुछ जवाब नहीं देते। राजा पुरुरवा कोकिल, हंस इत्यादि को पुकारता ही फिरता है, पर कोई सहानुभूति प्रकट करता नहीं दिखाई पड़ता (विक्रमोर्वंशीय