अस परजरा विरह कर गठा। मेघ साम भए धूम जो उठा॥
दाढ़ा राहु, केतु गा दाधा। सूरुज जरा, चाँद जरि आधा॥
औ सब नखत तराई जरहीं। टूटहिं लूक, धरति महँ परहीं॥
जरै सो धरती ठावहि ठाऊँ। दहकि पलास जरै तेहि दाऊँ॥
इन चौपाइयों में मेघों का श्याम होना, राहु केतु का काला (झुलसा सा) होना, सूर्य का तपना, चंद्रमा की कला का खंडित होना, पलाश के फूलों का लाल (दहकते अंगारे सा) होना आादि सत्य हैं। वे विरहताप के कारण ऐसे हैं, केवल यह बात कल्पित है।
ताप के अतिरिक्त विरह के और और अंगों का भी विन्यास जायसी ने इसी हृदयहारिणी और व्यापकत्व विधायिनी पद्धति पर बाह्य प्रकृति को मूल आभ्यंतर जगत् का प्रतिबिंब सा दिखाते हुए किया है। काम हेतूत्प्रेक्षा से लिया गया है। प्रेमयोगी रत्नसेन के विरहव्यथित हृदय का भाव हम सूर्य, चंद्र, वन के पेड़, पक्षी, पत्थर, चट्टान सबमें देखते चलते हैं—
रोवँ रोवँ वे बान जो फूटे। सूतहि सूत रुहिर मुख छूटे॥
नैनहिं चली रकत कै धारा। कंथा भीजि भएउ रतनारा॥
सूरज बूड़ि उठा होइ ताता। औ मजीठ टेसू बन राता॥
भा बसंत, राती बनसपती। औ राते सबजोगी जती॥
भूमि जो भीजि भएउ सब गेरू। औ रात तहँ पंखि पखेरू॥
राती, सती, अगिनि सब काया। गमन मेघ राते तेहि छाया॥
ईंगुर भा पहार जौ भीजा। पै तुम्हार नहिं रोवँ पसीजा॥
इसी प्रकार नागमती के आँसुओं से सारी सृष्टि भींगी हुई जान पड़ती है—
कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसू घुँघची बन बोई॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होई वनवासी। तहूँ तहँ होइ घुँघचि कै रासी॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ। गुंजा गूँजि करै, 'पिउ पीऊ'॥
तेहि दुख भए परास निपाते। लोहू बूडि उठे होइ राते॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू। परवर पाक फाट हिय गोहूँ॥
विरहवर्णन में भक्तवर सूरदास जी ने भी गोपियों के हृदय के रंग में बाह्य प्रकृति को रँगा है। एक स्थान पर तो गोपियों ने उन उन पदार्थों को कोसा है जो उस रंग से कोरे दिखाई पड़े हैं—
मधुबन! तुम कत रहत हरे?
बिरह वियोग श्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?
कौन काज ठाढ़े रहे बन में; काहे न उकठि परे?
नागमती का विरहवर्णन हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है। नागमती उपवनों के पेड़ों के नीचे रात भर रोती फिरती है। इस दशा में पशु, पक्षी, पेड़, पल्लव जो कुछ सामने जाता है उसे वह अपना दुखड़ा सुनाती है। वह पुण्यदशा धन्य है जिसमें ये सब अपने सगे लगते हैं और यह जान पड़ने लगता है कि इन्हें