३०४ झाखिरी कलाम पाप पुन्नि है तखरी, होइ चाहत है पच । प्रस मन जानि ‘मुहम्मद, हिीं माने सोच (॥ ३१ ॥ जह श्रादम के पासा। ‘पिता ! तुम्हारि बहुत मोहि आासा ॥ उमत मोरि गाढ़े है परी। भा न दान ; लेखा का धरी ? ॥ दुखिया नूत होत जो आ है। सब दुख पे बाप सों क ॥ ‘बाप बाप के जो कयू खाँगे । तृमदि । मड़ि कासौं पुनि माँ ? ॥ तुम जटेर पुनि सबहिन्ह केरा । अहं संतति, मुख तुम्हरै हेरा । जेट जऔर जो कहेिं मिनती ठाकुर तबहीं सुनि, मिनती। 'जाइ देउ सो बिनवीं रोई । मुख दयाल दाहिन तोहि होई ॥ ‘कहह जाइ जस देखेर, हि होवें उदघाट । 'बहु दुख दुखी ‘मुहम्मद, बिधि : संकट तेढ़ काट' ! ३२ । 'सुनहु पूत . श्रापन दुख कहऊँ। हाँ अपने दुख बाउर रहकें । होइ कुछ जो आायमठेलेगें। दूत के कहे मु ख गाँ मेलेट ‘खिया पेट लागि सैंग धावा । काढ़ि विहिम्त से मैल मोढवा ॥ परजें जाड़ मेडल संसारा । नैन न सू, नि िआधियारा ॥ सकल जगत में फिर फिरि रोवा। जीउ अजान बाधि के खोवा !। भएँ उजियार पिथिवीं जइहाँ। औ गोसाईं ने प्रस्तुति कहिहाँ ॥ ‘लौटि मिले जौ हौवा पाई। तौ जउ कहें रज हो जा।ई । ‘तेहि हुत लाजि उठे , मुंह सकीं दरसाइ । न । ‘सो मुंह ले, ‘महम्मद बात कहों का जाड़' ? पुनि जेहैं मूसा क दोहाई। 'ऐ बंधु ! मोहि उपकरु भाई ॥ तुम कह बिबिना आायसु दीन्हा। तुम मेरे होइ बातें कीन्हा। उन्मत मोरि बहुत दुख देखा। भा न दान, माँगत है लेखा । ‘ब जौ भाइ मोर तुम अहौ। एक बात मोहि कारन कहीं। ‘तुम अस ठ बात का कोई। सोई कही बात जे हि होई ॥ गाड़े मीत ! कहीं का काहू ? । कहहु जाइ जेहि होइ निबाहू । ‘तुम संवार के जानg बाता। मई सुनि माया करें विधाता। मिनती करहु मोर ग्रुत सीस नाइ, कर जोरि’ । हा हा करें मुहम्मद ‘उमत दुखी मोरि' ॥ ३४ तखरी = तकडी, तराजू (पंजाबी) । (३२) गाढ़े = संकट में । धरी = धरिहि, धरेगी (अवध) । खाँगे= घटता है । जठेर = बड़ा जेठा, बुजुर्ग । उद्घाट > छुटकारा. उद्धर । (३३) बाउर = बावला। मैल प्रोढ़ावा . कलंक लगा दिया। भए = होने पर । तेहिद त = उसी से, उसी कारण। (३४) उपकरु = उपकार कर। ठटे = बनाए । बात जेहि होई = जिससे काम हो जाय । के जानह बाता = बात करना जानते हो । मकु = कदाचित्, शायद। मोर हुत = मेरी ओोर से ।
पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४८६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३०४
आखिरी कलाम