पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४७१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आखरावट २८ ने सम।ि गुरू स ा । देख लें निरवि भरा औौ ठंा ॥ दुर्दा है “क अकेला। नौ अनबन परकार सो खेला। रूप ने भा चहै दुवाँ मि लि एका। को सिव देड़ काहि, को टेका ॥ कैसे ग्राषु बीच सो मेटे ? । कैसे आप हे राइ सो भेंट ? है। जो लहि पाप न जीयत मरई । रि सी बात न करई ॥ तेहि कर रूप बदन सब देखें । उठं व री महें भाँति बिसेफ ॥ न दोहा सो नौ आभा हे राम है, तन मन जीवन खो: । चेला पूछे गुरू कहूँतेहि कस अगरे होइ ? ॥ सोरठ मन आहथिर है टेकू, दूसर कहना ईि दे । आदि त जो एक, मुहमद कहु, दूसर कहाँ ॥ ४५ ॥ सुन तेला ! 5 तस र ा रू कहई। एक होइ सो लाखन लहई ॥ हथिर जो पि डा द्वाड़े। न । लेइ धरतो महें गार्ड ॥ काह कहीं जस व परछाहीं । जौ पै किg आापन बस नाहीं ॥ जो बाहर सो अंत समाना। सो जानै जो मोहि पहचाना ॥ तू हेरे भीतर स मिंता। सोइ करें जेहि लहैं न चिता ॥ स मन बूति ड, को तोरा ? । हो समान, करह मति मोरा। दुइ ढंग चलै न राज न रैयत । तब वेइ सोख जो हो मग ऐयत ॥ दोहा आ स मन बूझहु व तुमकरता है सो ए' । साइ सूरत सइ मूरत, सूने गुरू सा टक पानी=योग साधनेवाले । वे =ले ने । देखनिखि : ..=

'छठ इस

संसार में ईश्वर को व्याप्त देखता भो मैं नहीं भी देखता हूँ । अनबन=अनेक, नाना। को टे का = कौन व शिक्षा ग्रहण करता है । ? बोच = अतर (ईश्वर ऑौर जीव के बी त्र काr) हूँमैं = वह प्रियतम ईश्वर सता है । तेहि कर रूप । विसे = कभो तो वह सब को उस रूप का देखता है और फिर वही दूसरे क्षण तेहि अगरे। में (व्यवहार में) भिन्न भिन्न रूप और प्रकार निदिष्ट करता है । = अहथिर उसके सामने । ४६) लखन (लहई = लाखों रूप धारण करता है ।

  • = जीवात्मा को स्थिर करके । जो पै ."नाहीं = जो वास्तव में कुछ है।

कि वह अपने वश के बाहर है, अर्थात् वस्तुसता तक हमारी पहुंच नहीं । चिता सांसारिक चिता = । छड़ - सब को छोड़ दे। को तोरा = तेरा कौन है ? समापन = समदर्शी । क रह मति ‘मोरा’ = ‘मेरा ' कर। मेरा मत । हत = से । तब वे इः ‘ऐयत वे ही सीखते हैं जो सच्चे मार्ग पर आ जाते हैं ।