पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४६२

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२८०
अखरावट

२८० अरावट चित भूलें जम झूले ऊखा। तजि के दोउ नींद औ भूख़ा। चिंता है जब पेहूँ सारू। भूमि कुल्हाड़ी करै प्रहारू ॥ तन कोल्ह, मन कातर फेरैं। पाँच भूत मातमहि पे ॥ जैसे भाटी तप दिन रातो। जग धंध जाएं जस बाती । चापुहि पेरि उड़ाई खई। तब रस औौट पाकि गुड होई ॥ दोहा प्रस व रस औौटावह, जामत गुड़ हो गई । गड से खड्ड मीटि भइ, सव परकार मिठाइ । सोरा धूप रहै ज ग श्राइ, वह खंड संसार महें । चुनि कहें जाइ समाइ, मुहमद सो खंड खोजिए।२८। बा तन ज तुि जिद्ध प्रस चैंधियारा1 नदि होत नयन उजियारा ।। मति क द जो नैनन्ह माहों । सोई प्रेम प्रंस परशाही ! श्रोहि जोत साँ पर हीरा ग्राहि स निरमल सकल सरीरा। उ जोति नैनन्ह म आा। जस । चैचमक उठे बोज देखावै । । मग हि सगरे जाहि विचारू । साँकर म"ह तेहि बड़ बिसतारू । जहवाँ कि नहि है, वरा। a ताँ । सत जहाँ वह रस भरा निरमल जोति बरनि नहि जाई । मिरखि सुन्न यह सुन्न समाई ॥ हूं माटी में जल निरमलजल में निरमल वाउ । हु ने सुटि निरमल, नु यह जाकर भाउ ॥ सारठा इहै जगत के पन्न, यह जप तप सब सधना । जानि परे जेहि मुन, सोई सिद्ध मुहमद भा ।२६। भा भल सुन्नहि रोइ जो जानेंमें जग पहिचानें। । सुन्नहि सब ॥ सुनहि है। सुन उपाती। सुनहि में उपहि बहु माँती ॥ सारू सार, तत्त्र 1 कातर कोल्ह का पाटा जिसपर बैठकर हाँकनेवाला बल हॉकता है। । तप जलती है । खोई जिसका रस निकाल लिया गया हो । आस है इतना । (२३) वंद बिंदी अथा पुतली के बीच गन्ने की सीटी का तिल । सतकग सत्य की ज्योति । वह रस ईश्वर भाव । अथत का यह जाकर भाउ यह सर भाव जिसका है, जिससे संसार के रूप का दर्शन होता है प्रौर मन में भावना होती है अर्थात ज्योति या तेज । जानि पर जह सुन्न जिसे इस प्रन्प का भेद मिल गया (एक परमाण के भीतर ही सारे ब्रह्मांड की व्यवस्था छिपी हुई है इसी बात की भावना योगी विदु द्वारा करते हैं) । (३०) उपात उत्पत्ति ।