पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४५

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प्रेम दूसरा रूप चाहता नहीं, चाहे वह प्रेमपात्र के रूप से कितना ही बढ़कर हो। लैला कुछ बहुत खूबसूरत न थी, पर मजनूँ उसी पर मरता था। यही विशिष्टता और एकनिष्टता प्रेम है। पर इस विशिष्टता के लिए निर्दिष्ट भावना चाहिए जो एक तोते के वर्णन मात्र से नहीं प्राप्त हो सकती। भावना को निदिष्ट करने के लिये ही मनस्तत्व से अभिज्ञ कवि पूर्वराग के बीच चित्रदर्शन को योजना करते हैं। पर यह रूपभावना पूर्व रूप से निर्दिष्ट साक्षात्कार द्वारा ही होती है। शिवमंदिर में पद्मावती की एक झलक जब राजा ने देखी तभी उसकी भावना निर्दिष्ट हई। मंदिर में उस साक्षात्कार के पूर्व राजा की भावना निर्दिष्ट नहीं कही जा सकती। मान लीजिए कि सिंहल के तट पर उतरते ही वही अप्सरा कहती कि 'मैं ही पद्मावती हूँ, और होता भी सकारता, तो रत्नसेन उसे स्वीकार ही कर लेता। ऐसी अवस्था में उसके प्रेम का लक्ष्य निर्दिष्ट कैसे कहा जा सकता? अतः रूपवर्णन सुनते ही रत्नसेन के प्रेम का जो प्रवल और अदम्य स्वरूप दिखाया गया है वह प्राकृतिक व्यवहार की दृष्टि से उपयुक्त नहीं दिखाई पड़ता।

राजा रत्नसेन तोते के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुन उसके लिये जोगी होकर निकल पड़ा और अलाउद्दीन ने राघव चेतन के मुँह से वैसा ही वर्णन सुन उसके लिये चित्तौर पर चढ़ाई कर दी। क्यों एक प्रेमी के रूप में दिखाई पड़ता है और दूसरा रूपलोभी लंपट के रूप में? अलाउद्दीन के विपक्ष में दो बातें ठहरती हैं--(१) पद्मावती का दूसरे की विवाहिता स्त्री होना और (२) अलाउद्दीन का उग्र प्रयत्न करना। दोनों प्रकार के अनौचित्य अलाउद्दीन की चाह को प्रेम का स्वरूप प्राप्त नहीं होने देते। यदि इस अनौचित्य का विचार छोड़ दें तो रूपवर्णन सुनते ही तत्काल दोनों के हृदय में जो चाह उत्पन्न हुई वह एक दूसरे से भिन्न नहीं जान पड़ती।

रत्नसेन के पूर्वराग के वर्णन में जो यह अस्वाभाविकता पाई है इसका कारण है लौकिक प्रेम और ईश्वरप्रेम दोनों को एक स्थान पर व्यंजित करने का प्रयत्न। शिष्य जिस प्रकार गुरु से परोक्ष ईश्वर के स्वरूप का कुछ आभास पाकर प्रेममग्न होता है उसी प्रकार रत्नसेन तोते के मह से पद्मिनी का रूपवर्णन जाता है। ऐसी ही अलौकिकता पद्मिनी के पक्ष में कवि ने दिखाई है।

राजा रत्नसेन के सिंहल पहुँचते ही कवि ने पद्मावती की बेचैनी का वर्णन किया है। पद्मावती को अभी तक रत्नसेन के आने को कुछ भी खबर नहीं है। अतः यह व्याकुलता केवल काम की कही जा सकती है, वियोग को नहीं। बाह्य या आभ्यंतर संयोग के पीछे ही वियोगदशा संभव है। यद्यपि प्राचार्यों ने वियोगदशा को कामदशा ही कहा है पर दोनों में अंतर है। समागम के सामान्य अभाव का दुःख कामवेदना है और विशेष के समागम के अभाव का दुःख वियोग है। जायसी के वर्णन में दोनों का मिश्रण है। रत्नसेन का नाम तक सूनने के पहले वियोग को व्याकुलता कैसे हुई, इसका समाधान कवि के पास यदि कुछ है तो रत्नसेन के योग का अलक्ष्य प्रभाव।

पदमावति तेहि जोग सँजोगा। परी प्रेम बस गहे वियोगा।

साधनात्मक रहस्यवाद योग जिस प्रकार अज्ञात ईश्वर के प्रति होता है उसी