यह जग काह जो अछहि न आथी। हम तुम, नाह! दुहूँ जग साथी॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई। पौढ़ीं दुवौ कंत गर लाई॥
लागी कंठ आगि देइ होरी। छार भईं जरि, अंग न मोरी॥
रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भउ रतनार।
जो रे उवा, सो अथवा, रहा न कोइ संसार॥ ३ ॥
वै सहगवन भईं जब जाई। बादसाह गढ़ छेंका आई॥
तौ लगि सो अवसर होइ बीता। भए अलोप राम औ सीता॥
आइ साह जौ ना अखारा। होइगा राति दिवस उजियारा॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी। दीन्ह उड़ाइ, पिरथिमी झूठी॥
सगरिउ कटक उठाई माटी। पुल बाँधा जहँ जहँ गढ़ घाटी॥
जौ लहि ऊपर छार न परै। तौ लहि यह तिस्ना नहि मरै॥
भा धावा, भइ जूझ असूझा। बादल आइ एँवरि पर जूझा॥
जौहर भइ सब इस्तरी, पुरुष भए संग्राम।
बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम॥ ४ ॥
अछहि न आथी = जो स्थिर या सारवान नहीं है। रतनार = लाल, प्रेम मय या आभापूर्ण। (४) सहगवन भईं = पति के साथ सहगमन किया; सती हुई। तौ लगि...बीता = तब तक वहाँ सब कुछ हो चुका था। अखारा = अखाड़े या सभा में, दरबार में। गढ़ घाटी = गढ़ की खाई। पुल बाँधा...घाटी = सती स्त्रियों की एक एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि उससे जगह जगह खाईं पट गई और पुल सा बँध गया। जौ लहि = जब तक। तिस्ना = तृष्णा। जौहर भइँ = राजपूत प्रथा के अनुसार जल मरीं। संग्राम भए = खेत रह, लड़कर मरे। चितउर भा इसलाम = चित्तौरगढ़ में भी मुसलमानी अमलदारी हो गई।