पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४४

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लोभ मात्र कहला सकता है, परिपुष्ट प्रेम नहीं। लोभ और प्रेम के लक्ष्य में सामान्य और विशेष का ही अंतर समझा जाता है। कहीं कोई अच्छी चीज सुनकर दौड़ पड़ना, यह लोभ है। विशेष वस्तु--चाहे दूसरों के निकट वह अच्छी हो या बुरी देख उसमें इस प्रकार रम जाना कि उससे कितनी ही बढ़कर अच्छी वस्तुओं के सामने आने पर भी उनकी ओर ध्यान न जाय, प्रेम है। व्यवहार में भी प्रायः देखा जाता है कि वस्तूविशेष के ही प्रति जो लोभ होता है वह लोभ नहीं कहलाता जैसे, यदि कोई मनुष्य पकवान या मिठाई का नाम सुनते ही चंचल हो जाय तो लोग कहेंगे कि वह बड़ा लालची है, पर यदि कोई केवल गलाबजामुन का नाम आने पर चाह प्रकट करे तो लोग यही कहेंगे कि इन्हें गुलाबजामुन बहुत अच्छी लगती है। तत्काल सुने हुए रूपवर्णन से उत्पन्न 'पूर्वराग' और 'प्रेम' में भी इसी प्रकार का अंतर समझिये। पूर्वराग रूपगुणप्रधान होने के कारण सामान्योन्मुख होता है पर प्रेम व्यक्तिप्रधान होने के कारण विशेषोन्मुख होता है। एक ने आकर कहा, अमुक बहुत सुंदर है; फिर कोई दूसरा आकर कहता है कि अमुक नहीं अमुक बहुत सुंदर है। इस अवस्था में बुद्धि का व्यभिचार बना रहेगा। प्रेम में पूर्ण शांति प्राप्त हो जाती है।

कोई वस्तु बहुत बढ़िया है, जैसे यह सुनकर हमें उसका लोभ हो जाता है, वैसे ही कोई व्यक्ति बहुत सुंदर है, इतना सुनते ही उसकी जो चाह उत्पन्न हो जाती है वह साधारण लोभ से भिन्न नहीं कही जा सकती। प्रेम भी लोभ ही है पर विशेषान्मुख। वह मन और मन के बीच का लोभ है हदय और हृदय के बीच का सबंध है। उसके एक पक्ष में भी हृदय है और दूसरे पक्ष में भी। अतः सच्चा सजीव प्रेम प्रेमपात्र के हृदय को स्पर्श करने का प्रयत्न पहले करता है, शरीर पर अधिकार करने का प्रयत्न पीछे करता है, सुंदर स्त्री कोई बहमूल्य पत्थर नहीं है कि अच्छा सूना और लेने के लिये दौड़ पड़े। इस प्रकार का दौडना रूपलोभ ही कहा जायगा, प्रेम नहीं।

बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यह परिचय पूर्णतया तो साक्षात्कार से होता है; पर बहुत दिनों तक किसी के रूप, गुण, कर्म आदि का ब्योरा सुनते सुनते भी उसका ध्यान मन में जगह कर लेता है। किसी के रूप गण की प्रशंसा सनते ही एकबारगी प्रेम उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक नहीं जान पड़ता। प्रम दूसरे की आँखो नहीं देखता; अपनी आँखों देखता है। अतः राजा रत्नसेन तोतके मुँह से पद्मावती का अलौकिक रूपवर्णन सन जिस भाव की प्रेरणा से निकल पड़ता है वह पहले रूपलोभ ही कहा जा सकता है। इस दष्टि से देखने पर कवि जो उस के प्रयत्न को तप का स्वरूप देता हुआ आत्मत्याग और विरहविकलता का विस्तृत वर्णन करता है वह एक नकल सा मालूम होता है। प्रेम लक्षण उसी समय दिखाई पड़ता है जब वह शिवमदिर में पद्मावती की झलक देख बेसुध हो जाता है। इस प्रेम की पूर्णता उस समय स्फुट होती है जब पार्वती अप्सरा का रूप धारण करके उसके सामने आती हैं और वह उनके रूप की ओर ध्यान न देकर कहता है कि--

भलेहि रंग अछरी तोर राता। मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता।।

उक्त कथन से रूपलोभ की व्यंजना नहीं होती, प्रेम की व्यंजना होती है।