मनि कुंडल डोलैं दुइ स्त्रवना। सीस धुनहिं सुनि सुनि पिउ गवना॥
नागिनि अलक, झलक उर हारू। भएउ सिंगार कंत बिनु भारू॥
गवन जो आवा पँवरि महँ, पिउ गवने परदेश।
सखी बुझावहि किमि अनल, बुझै सो केहि उपदेस? ॥ ३ ॥
मानि गवन सो घूँघट काढ़ी। बिनवै आइ बार भइ ठाढ़ी॥
तीखे हेरि चीर गहि ओढ़ा। कंत न हेर, कीन्ह जिउ पोढ़ा॥
तब धनि बिहँसि कीन्ह सहुँ दीठी। बादल ओहि दीन्हि फिरि पीठी॥
मुख फिराइ मन अपने रीसा। चलत न तिरिया कर मुख दीसा॥
भा मिन मेष नारि के लेखे। कस पिउ पीठि दीन्हि मोहिं देखे॥
मकु पिउ दिस्टि समानेउ सालू। हुलसी पीठि कढ़ावौं फालू॥
कुच तूंबी अब पीठि गड़ोवौं। गहै जो हूकि, गाढ़ रस धोवौं॥
रहौं लजाइ त पिउ चलै, गहौं त कह मोहिं ढीठ।
ठाढ़ि तेवानि कि का करौं, दूभर दुऔ बईठ॥ ४ ॥
लाज किए जौ पिउ नहिं पावौं। तजौं लाज कर जोरि मनावौं॥
करि हठ कंत जाइ जेहि लाजा। घूँघुट लाज आवा केहि काजा॥
तब धनि विहँसि कहा गहि फेंटा। नारि जो बिनवै कंत न मेटा॥
आजु गवन हौं आई, नाहाँ। तुम न, कंत! गवनहु रन माहाँ॥
गवन आव धनि मिलै के ताईं। कौन गवन जौ बिछुरे साई॥
धनि न नैन भरि देखा पीऊ। पिउ न मिला धनि सौं भरि जीऊ॥
जहँ अस आस भरा है केवा। भँवर न तजै बास रसलेवा॥
पायँन्ह धरा लिलाट धनि, बिनय सुनहु, हो राय!
अलक परी फँदवार होइ; कैसेहु तजै न पाय॥ ५ ॥
छाँड़ फेंट धनि! बादल कहा। पुरुष गवन धनि फेंट न गहा॥
जौ तुइ गवन आइ, गजगामी। गवन मोर जहँवाँ मोर स्वामी॥
जौ लगि राजा छूटेि न आवा। भावै बीर, सिँगार न भावा॥
तिरिया भूमि खड़ग कै चेरी। जीत जो खड़ग होइ तेहि केरी॥
(४) बार = द्वार। हेर = ताकता है। पोढ़ा = कड़ा। मिन मेष = आगा पीछा, सोच विचार। मकु...सालू = शायद मेरी तीखी दृष्टि का साल उसके हृदय में पैठ गया है। हुलसी...फालू = वह साल पीठ की और हुलसकर जा निकला है इससे मैं वह गड़ा हुआ तीर का फल निकलवा दूँ। कुच तूंबी...गड़ोवों = जैसे धँसे हुए काँटे आदि को तूंबी लगाकर निकालते हैं वैसे ही अपनी कूचरूपी तूंबी जरा पीठ में लागऊँ। गहै जो...धोवौं = पीड़ा से चौंककर जब वह मुझे पकड़े तब मैं गाढ़े रस से उसे धो डालू अर्थात् रसमग्न कर दूं। तेवानि = चिता में पड़ी हुई। दुऔ = दौनों बाते।
(५) मिलै के ताईं = मिलने के लिये। फँदवार = फंदा। (६) पुरुष गवन = पुरुष के चलते समय। बीर = वीर रस।