पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४२२

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२४०
पदमावत

२४० पदमावत छाला भूमि, गगन सिर छाता। रंग करत रह हिरदय राता ॥ मन माला फेरे ढंत ओोही। पाँच भूत भसम तन होहीं ॥ कंडल सोइ सन , मुंवरि पांव पर रेह । पिउ कथा दंडक गोरा बादलहि जाड़ प्रधारी लेह ॥ ८ । ॥ -:०: अघारी = अड्डे के प्राकार की लकड़ी जिसे सहारे के लिये साधु रब्बते हैं। प्रधारी लेह सहारा लो ।