(४७) रत्नसेन बंधन खंड
मीत मैं माँगा बेगि विवानू। चला सूर, सँवरा अस्थानू॥
चलत पंथ राखा जौ पाऊ! कहाँ रहे थिर चलत बटाऊ॥
पंथी कहाँ कहाँ सुसताई। पंथ चलै तब पंथ सेराई॥
छर कीजै बर जहाँ न आँटा। लीजै फूल टारि कै काँटा॥
बहुत मया सुनि राजा फूला। चला साथ पहुँचावै भूला॥
साह हेतु राजा सौ बाँधा। वातन्ह लाइ लीन्ह गहि काँधा॥
घिउ मधु सानि दीन्ह रस सोई। जो मुँह मीट, पेट विष होई॥
अमिय बचन औ माया को न मुएउ रस भीज?।
सत्रु मरै जो अमृत, कित ता कहँ विष दोज? ॥ १ ॥
चॉद घरेहिं जौ सूरुज आवा। होइ सो अलोप अमावस पावा॥
पूछहिं नखत मलीन सो मोती। सोरह कला, न एकौ जोती॥
चाँद क गहन अगाह जनावा। राज भूल गहि साह चलावा॥
पहिली पँवरि नाँघि जौ आवा। ठाढ़ होइ राजहि पहिरावा॥
सौ तुषार, तेइस गज पावा। दुंदुभि औ चौघड़ा दियावा॥
दूजी पँवरि दीन्ह असवारा। तीजि पँवरि नग दीन्ह अपारा॥
चौथि पँवरि देइ दरब करोरी। पँचईं दुइ हीरा कै जोरी॥
छठइँ पँवरि देइ माँडौ, सतई दीन्ह चँदेरि।
सात पँवरि नाँघत नृपहि लेइगा बाँधि गरेरि॥ २ ॥
एहि जग बहुत नदी जल जूड़ा। कोउ पार भा, कोऊ बूढ़ा॥
कोउ अंध भा आगु न देखा। कोउ भएउ डिठियार सरेखा॥
राजा कहँ बियाध भइ माया। तजि कबिलास धरा भुइँ पाया॥
(१) मीत भै = मित्र से ('भै' के इस प्रयोग पर नोट दिया जा चुका है)। सेराई समाप्त होता है। छर = छल। बर = बल। न आँटा = नहीं पूरा पड़ता है। हेतु = प्रेम। घिउ मधु = कहते हैं, घी और शहद बराबर मिलाने से विष हो जाता है। मुंह = मुँह में। (२) चाँद = पद्मावती। सूरुज = बादशाह। नखत = अर्थात् पद्मावती की सखियाँ। अगाह = आगे से, पहले से। राज भूल = राजा भूला हुआ है। पहिरावा = राजा को खिलअत, पहनाई। चौघड़ा = एक प्रकार का बाजा। माड़ौ = माड़ौगढ़। चंदेरि = चँदेरी का राज्य। गरेरी = धरकर। (३) एहि जग जूड़ा = (यह संसार समुद्र है) इसमें बहुत सी नदियों का जल इकट्ठा है, अर्थात् इसमें बहुत तरह के लोग हैं। आगु = आगमन। डिंठियार = दृष्टिवाला। सुरेखा = चतुर। तजि कबिलास पाया = किले से नीचे उतरा; सुख के स्थान से दुख के स्थान में गिरा।