आकस्मिक घटना के रूप में वर्णन किया है। इतना परिवर्तन कर देने से नायक रत्नसेन के गौरव की पूर्ण रूप से रक्षा हुई है। पद्मिनी की छाया भी दूसरे को दिखाने पर संमत होना रत्नसेन ऐसे पुरुषार्थी के लिये कवि ने अच्छा नहीं समझा। तीसरा परिवर्तन कवि ने यह किया है कि अलाउद्दीन के शिविर में बंदी होने के स्थान पर रत्नसेन का दिल्ली में दंदी होना लिखा है। रत्नसेन को दिल्ली में ले जाने से कवि को दूती और जोगिन के वृत्तांत, रानियों के विरह और विलाप तथा गोरा बादल के प्रयत्नविस्तार का पूरा अवकाश मिला है। इस अवकाश के भीतर जायसी ने पद्मिनी के सतीत्व की मनोहर व्यजना के अनंतर बालक बादल का वह क्षात्र तेज तथा कर्तव्य की कठोरता का वह दिव्य और मर्मस्पर्शी दृश्य दिखाया है जो पाठक के हृदय को द्रवीभूत कर देता है। देवपाल और अलाउद्दीन का दूती भेजना तथा बादल और उसकी स्त्री का संवाद, ये दोनों प्रसंग इसी निमित्त कल्पित किए गए हैं। देवपाल कल्पित पात्र है, पीछा करते हुए अलाउद्दीन के चित्तौर पहुँचने के पहले ही रत्नसेन का देवपाल के हाथ से मारा जाना और अलाउद्दीन के हाथ से न पराजित होना दिखाकर कवि ने अपने चरितनायक की पान रखी है।
पद्मिनी क्या सचमुच सिंहल की थी? पद्मिनी सिंहलद्वीप की हो नहीं सकती। यदि 'सिंहल' नाम ठीक मानें तो वह राजपूताने या गुजरात का कोई स्थान होगा। न तो सिंहलद्वीप में चौहान आदि राजपूतों की बस्ती का कोई पता है, न इधर हजार वर्ष से कूपमंडूक बने हुए हिंदुओं के सिंहलद्वीप में जाकर विवाह संबंध करने का। दुनिया जानती है कि सिंहलद्वीप के लोग (तमिल और सिंहली दोनों) कैसे काले कलूटे होते हैं। वहाँ पर पद्मिनी स्त्रियों का पाया जाना गोरखपंथी साधुनों की कल्पना है।
नाथपंथ की परंपरा वास्तव में महायान शाखा के योगमार्गी बौद्धों की थी जिसे गोरखनाथ ने शैव रूप दिया। बौद्धधर्म जब भारतवर्ष से उठ गया तब उसके शास्त्रों के अध्ययन अध्यापन का प्रचार यहाँ न रह गया। सिंहलद्वीप में ही बौद्ध शास्त्रों के अच्छे अच्छे पंडित रह गए। इसी से भारतवर्ष के अवशिष्ट योगमार्गी बौद्धों में सिंहलद्वीप एक सिद्धपीठ समझा जाता रहा। इसी धारणा के अनुसार गोरखनाथ के अनुयायी भी सिंहलद्वीप को एक सिद्ध पीठ मानते हैं। उनका कहना है कि योगियों को पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के लिये सिंहलद्वीप जाना पड़ता है जहाँ साक्षात् शिव परीक्षा के पीछे सिद्धि प्रदान करते हैं। पर वहाँ जानेवाले योगियों के शम दम की पूरी परीक्षा होती है। वहाँ सुवर्ण और रत्नों की अतुल राशि सामने आती है तथा पद्मिनी स्त्रियाँ अनेक प्रकार से लुभाती हैं। बहुत से योगी उन पद्मिनियों के हाव भाव में फंस योगभ्रष्ट हो जाते हैं। कहते हैं, गोरखनाथ (वि० संवत् १४०७) के गुरु मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) जब सिंहल में सिद्धि की पूर्णता के लिये गए तब पद्मिनियों के जाल में इसी प्रकार फंस गए। पद्मिनियों ने उन्हें एक कएँ में डाल रखा था। अपने गुरु की खोज में गोरखनाथ भी सिंहल गए और उसी कुएँ के पास से होकर निकले। उन्होंने अपने गुरु की आवाज पहचानी और कुएँ के किनारे खड़े होकर बोले 'जाग मछंदर गोरख पाया!' इसी प्रकार की और कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।