(४१) पद्मावती रूपचर्चा खंड
वह पदमिनि चितउर जो आनी। काया कुंदन द्वादसबानी॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा। वह सुगंध जस कँवल बिगासा॥
कुंदन कनक कठोर सो अंगा। वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा॥
ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा। सोइ मलयागिरि भएउ सभागा॥
काह न मूठि भरी ओहि देही? असि मूरति कैइ दैउ उरँही? ॥
सबै चितेर चित्र कै हारे। ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे॥
कया कपूर, हाड़ सब मोती। तन्हितें अधिक दीन्ह विधि जोती॥
सुरूज किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिक सरीर।
सौंह दिस्टि नहिं जाइकरि नैनन्ह आवै नीर ॥ १ ॥
ससि मुख जबहिं कहै किछु बाता। उठत आठ सूरुज जस राता॥
दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं। सब जग जनहुँ फूलझरी छूटहिं॥
जानहुँ ससि महँ बीजु देखावा। चौंधि परै किछु कहै न आवा॥
कौंधत अह जस भादौं रैनी। साम रैनि जनु चलै उडैनी॥
जनु, बसंत ऋतु कोकिल बोली। सुरस सुनाइ मारि सर डोली॥
ओही सिर सेसनाग जौ हरा। जाइ सरन बेनी होइ परा॥
जनु अमृत होइ वचन बिगासा। कँवल जो बास बास धनि पासा॥
सबै मनहि हरि जाइ मरि, जो देखै तस चार।
पहिले सो दुख बरनि कै, बरनौ ओहिक श्रृंगार ॥ २ ॥
कित हौं रहा काल कर काढ़ा। जाइ धौरहर तर भा ठाढ़ा।
कित वह आइ झरोखे झाँकी। नैन कुरंगिनि चितवनि बाँकी॥
बिहँसी ससि तरई जनु परी। की सो रैनि छुटी फुलझरी॥
चमक बीजू जस भादौं रैनी। जगत दिस्टि भरि रही उडैनी॥
काम कटाछ दिस्टि विष बसा। नागिनि अलक पलक महँ डसा॥
भौंह धनुष पल काजर बूड़ी। वह भइ धानुक हौं भा ऊड़ी।
मारि चली मारत हँसा। पाछे नाग रहा हौं डँसा॥
काल घालि पाठ रखा, गरुड़ न मंतर कोइ।
मोरे पेट वह पैठा, कासैं पुकारौं रोइ? ॥ ३ ॥
(१)बासा = महक, सुगंध। ओहि छुइ सभागा = उसको छूकर वायु जिन पेड़ों में लगी वे मलयगिरि चंदन हो गए। काह न मूठि देही = उस मुट्ठी भर देह में क्या नहीं है? चितेर = चित्रकार। (२) साम रैनि = अँधेरी रात। उड़ैनी = जुगनू। सर = वाण। चार = ढंग, ढब। दुख = उसके दर्शन से उत्पन्न विकलता। (३)काल कर काढ़ा = काल का चुना हुआ। पल = पलक। चूड़ी = डूबी हुई। धानुक = धनुष चलानेवाली। ऊड़ी = पनडुब्बी चिड़िया। घालि रखा = डाल रखा।