जौ एक रतन भँजावै कोई। करै सोइ जो मन महँ होई॥
दरब गरब मन गएउ भुलाई। हम सम लच्छ मनहिं नहिं आई॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना। जो जेहि चहिय सोइ तेइ माना॥
बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी काज जो सोइ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ॥ २५ ॥
दिन दस रहे तहाँ पहुनाई। पुनि भए बिदा समुद सौं जाई॥
लछमी पदमावति सौं भेंटी। औ तेहि कहा 'मोरि तू बेटी'॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा। भरि कैं रतन पदारथ हीरा॥
और पाँच नग दीन्ह बिसेखे। सरवन सुना, नैन नहिं देखे॥
एक तौ अमृत, दूसर हंसू। औ तीसर पंखी कर बंसू॥
चौथ दीन्ह सावक सादूरू। पाँचवँ परस, जो कंचनमूरू॥
तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए। जलमानुष अगुवा सँग लाए॥
भेंटघाँट कै समदि तब, फिरे नाइकै माथ।
जलमानुष तबहीं फिरे, जब आए जगनाथ॥ २६ ॥
जगन्नाथ कहँ देखा आई। भोजन रींधा भात बिकाई॥
राजै पदमावति सौं कहा। साँठेि नाठि किछु गाँठि न रहा॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला। निसँठ जो पुरुष पात जिमि डोला॥
साँठिहि रंक चलै झौंराई। निसंठ राव सब कह बौराई॥
साँठिहि आव गरब तन फूला। निसँठहि बोल, बुद्धि बल भूला॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई। निसँठहिं काह होइ औंघाई॥
साँठिहि दिस्टि, जोति होइ नैना। निसँठ होइ, मुख आव न बैना॥
साँठिहि रहै साधि तन, निसँठहि आगरि भूख।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि, ठाढ़ ठाढ़ पै सूख॥ २७ ॥
पदमावति बोली सुन राजा। जीउ गए धन कौने काजा? ॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी। पुनि कित मिलै लच्छि जौ नाठी॥
फार = फल, कतरा, टुकड़ा। हम सम लच्छ = हमारे ऐसे लाखों हैं। (२६) पहुँनाई = मेहमानी। बिसेखे = विशेष प्रकार के। बंसू = वंश, कुल। सावक सादूरू = शार्दूल शावक, सिंह का बच्चा। परस = पारस पत्थर। कंचन-मूरू = सोने का मूल अर्थात् सोना उत्पन्न करनेवाला। जलमानुष = समुद्र के मनुष्य। अगुवा = पथप्रदर्शक। सँग लाए = संग में लगा दिए। भेंट घाँट = भेंट मिलाप। समदि = बिदा करके। (२७) रीधा = पका हुआ। साँठि = पूंजी, धन। नाटि = नष्ट हई। झौंराई = झूमकर। कह = कहते हैं। औंघाई = नींद। साधि तन = शरीर को संयत करके। आगरि = बढ़ी हई, अधिक। गथ = पूंजी। नाठी = नष्ट हुई।