देखि सो वल कँवल भँवर होइ धावा। साँस लीन्ह, वह बास न पावा॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी। रतनसेन तब दीन्हीं पीठी॥
जौ भलि होति लच्छमी नारीं। तजि महेस कत होत भिखारी? ॥
पुनि धनि फिर आगे होइ रोई। पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई? ॥
हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ।
आनि समुद महँ छाँड़ैहु, अब रोवौं देइ जीउ॥ १९ ॥
मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू। लेत फिरौं मालति कर खोजू॥
मालति नारी, भँवरा पीऊ। लहि वह बास रहै थिर जीऊ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई। फूल सोइ पै बास न सोई॥
भँवर जो सब फूलन कर फेरा। बास न लेइ मालतिहि हेरा॥
जहाँ पाव मालति कर बासू। वारै जीउ तहाँ होई दासू॥
कित वह बास पवन पहुँचावै। नव तन होइ, पेट जिउ आवै॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ। और फूल कै बास न लेऊँ॥
भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि।
सौहैं भाल खाइ, पै, फिरि कै देइ न पीठि॥ २० ॥
तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ। जहाँ सो मालति लेइ चलु, जाऊँ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा। पानि पियावा मरत पियासा॥
पानी पिया कँवल जस तपा। निकसा सुरुज महँ छपा॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा। राजकुँवर मनि दिपै ललाटा॥
दसन दिपै जस हीरा जोती। नैन कचोर भरे जनु मोती।
भुजा लंक उर केहरि जीता। मूरति कान्ह देख गोपीता॥
जस राजा नल दमनहिं पूछा। तस बिनु प्रान पिंड है छूछा॥
जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग।
मिला भँवर मालति कहँ, करहु दोउ मिलि भोग॥ २१ ॥
पदिक पदारथ खीन जो होती। सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती॥
कँवल जो बिहँसि सूर मुख दरसा। सूरुज कंँवल दिस्टि सौं परसा॥
लोचन कँवल सिरीमुख सूरू। भएउ अनंद दुहूँ रस मूरू॥
मालति देखि भँवर गा भूली। भँवर देखि मालति बन फूली॥
दीठी = देखा। दीन्ही पीठी = पीठ दी, मुंह फेर लिया। (२०) खोजू = पता। कर फेरा = फेरा करता है। हेरा = दृँढता है। वारै = निछावर करता है। नव = नया। भाल = भाला। (२१) लेइ चलु, जाउँ = यदि ले चले तो जाऊँ। छपा = छिपा हुआ। कचोर = कटोरा। गोपीता = गोपी। दमनहिं = दमयंती को। पिंड = शरीर। छूँछा = खाली। पदिक = गले में पहनने का एक चौखूँटा गहना जिसमें रत्न जड़े जाते हैं। (२२) पदिक पदारथ = अर्थात् पद्मावती। बहुरा = लौटा, फिरा। मूरू = मूल, जड़।