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लक्ष्मी समुद्र खंड

तपि कै पावा, मिलि कै फूला। पुनि तेहि खोइ सोइ पथ भूला॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा। मुए गए सँवरै पै चाहा॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं? । कहँ अस जीवन कै सुख छाहीं॥
कहँ अस रहस भोग अव करना। ऐसे जिए चाहि मरना॥
जहँ अस परा समुद नग दीया। तहँ किमि जिया चहै मरजीया?
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ। देह हत्या झगौं सिवलोका॥
का मैं ओहि क नसावा, का सँवरा सो दावँ? ।
जाइ सरग पर होइहि, एहि कर मोर नियावँ॥ १६ ॥
जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? । ना मुइ मरै, न रोवै मरा॥
जो मरि भा औ छाँड़ेसि काया। बहुरि न करै मरन कै दाँवा॥
जो भरि भएउ न बूड़ै नीरा। बहा जाइ लागै पै तीरा॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा। जैस राम दसरथ कर बेटा॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा। एहि समुद्र महँ फिरि फिरि रोवा॥
उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा। हति दसमाथ अमरपद दीन्हा॥
तोहि बल नाहिं मूँदु अब आँखी। लावौं तीर, टेक बैसाखी॥
बाउर अंध प्रेम कर, सुनत लुबुधि भा बाट।
निमिष एक महँ लेइगा, पदमावति जेहि घाट॥ १७ ॥
पदमावति कहँ दुख तस बीता। जस असोक बोरौ तर सीता॥
कनक लता दुइ नारँग फरी। तेहि के भार उठि होइ न खरी॥
तेही पर अलक भुअंगिनि डसा। सिर पर चढ़ै हिये परगसा॥
रही मृनाल टेकि दुखदाधो। आधी कँवल भई, ससि आधी॥
नलिनखंड दुइ तस करिहाऊँ। रोमावली बिछूक कहाऊँ॥
रही टूटि जिमि कंचन तागू। को पिउ मेरवै, देइ सोहागू॥
पान न खाइ करै उपवासू। फूल सूख, तन रही न बासू॥
गगन धरति जल बुड़ेि गए, बूड़त होइ निसाँस।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास॥ १८ ॥
लछिमी चंचल नारि परेवा। जेहि सत होइ छरै कै सेवा॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा। अगमन होइ बैठी तेहि बाटा॥
औ भइ पदमावति कै रूपा। कीन्हेसि छाँह, जरै जहँ धूपा॥


फूला = प्रफुल्ल हुआ। चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत। मोकाँ = मोकहँ, मुझको। देइ हत्या = सिर पर हत्या चढ़ाकर। दाँव = बदला लेने का मौका। (१७) मरि भा = मर चुका। दायाँ = दावँ, आयोजन। बाट भा = रास्ता पकड़ा। (१८) बीरौ = बिरवा, पेड़। दाधी = जली हुई। करिहाउँ = कमर, कटि। बिछूक = बिच्छू। सेवाति = स्वाति नक्षत्र में।

(१९) छरै = छलती है। बाटा = मार्ग में। अगमन = आगे।