कहि कै उठा समुद पहँ आवा। काढ़ि कटार गीउ महँ लावा॥
कहा समुद, पाप अब घटा। बाम्हन रूप आइ परगटा॥
तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे। हाथ कनक बैसाखी लीन्हे॥
मुद्रा स्त्रवन, जनेऊ काँधे। कनकपत्र धोती तर बाँधे॥
पाँवरि कनक जराऊँ पाऊँ। दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ॥
कहसि कुँवर! मोसौं सत बाता। काहे लागि करसि अपघाता॥
परिहँस मरसि कि कौनिउ लाजा। आपन जीउ देसि केहि काजा॥
जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप।
सकति जीउ जौ काढै, महा दोष औ पाप॥ १३ ॥
को तुम्ह उतर देइ, हो पाँड़े। सो बोलै जाकर जिउ भाँड़े।
जबूदीप केर हौं राजा। सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा॥
सिंघलदीप राजघर बारी। सो मैं जाइ बियाही नारी॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा। नग अमोल निरमर भरि लीन्हा॥
रतन पदारथ मानिक मोती। हुती न काहु के संपति ओती॥
बहल, घोड़, हस्ती सिंघली। औ सँग कुँवरि लाख दुइ चली॥
ते गोहने सिंघल पदमिनी। एक सो एक चाहि रुपमनी॥
पदमावति जग रूपमनि, कहँ लगि कहौं दुहेल॥
तेहि समुद्र मँह खोएउँ, हौं का जिऔं अकेल॥ १४ ॥
हँसा समुद, होइ उठा अँजोरा। जग बूड़ा सब कहि कहि 'मोरा'॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा। बूझि बिचारि तहूँ केहि केरा॥
हाथ मरोरि धुनै सिर झाँखी। पै तोहि हिये न उघरै आँखी॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा। हाथ न रहा झूठ संसारा॥
जो पै जगत होति फुर माया। सैंतत सिद्धि न पावत, राया! ॥
सिद्धै दरब न सैंता माड़ा। देखा भार चूमि कै छाँड़ा।
पानी कै पानी महँ गई। तू जो जिया कुसल सब भई॥
जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव।
धन लछिमी सब ताकर, लेई त का पछिताव? ॥ १५ ॥
अनु, पाँड़े! पुरुषहि का हानी। जौ पावौं पदमावति रानी॥
(१३) पाप अब घटा = यह तो बड़ा पाप मेरे सिर घटा चाहता है। बैसाखा = लाठी। पाँवरि = खड़ाऊँ। पाऊँ = पाँव में। काहे लगि = किसलिये। अपघात = आत्मघात। परिहस = ईर्ष्या। १४) तुम्ह = तुम्हें। भाँड़े = घट में. शरीर में। ओती = उतनी। चाहि = बढ़कर। रूपमनी = रूपवती। दुहेल = दुख। (१५) तोर होइ...बेरा = तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता। झाँखी = झीखकर। उधरै = खुलती है। सैंतत सिद्धि...राया = तो हे राजा।! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिद्धि पा न जाते। पानी कै...गई = जो वस्तुएँ (रत्न आदि) पानी की थीं वे पानी में गई। लेइ चाह = लिया ही चाहे। जब भाव = जब चाहे। (१६) अनु = फिर, आगे।