अमृत से जिला दिए गए। इस प्रकार बड़े आनंद से दोनों वहाँ से विदा हुए। विदा होते समय समुद्र ने बहुत से अमूल्य रत्न दिए। सबसे बढ़कर पाँच पदार्थ दिए—अमृत, हंस, राजपक्षी, शार्दूल और पारस पत्थर। इन सब अनमोल पदार्थों को लिए अंत में रत्नसेन और पद्मावती चित्तौर पहुँच गए। नागमती और पद्मावती दोनों रानियों के साथ रत्नसेन सुखपूर्वक रहने लगे। नागमती से नागसेन और
पद्मावती से कमलसेन ये दो पुत्र राजा को हुए।
चित्तौर की राजसभा में राघव चेतन नाम का एक पंडित था जिसे यक्षिणी सिद्ध थी। एक दिन राजा ने पंडितों से पूछा 'दूज कब है?' राघव के मुँह से निकला 'आज'। और सब पंडितों ने एक स्वर से कहा कि 'आज नहीं हो सकती कल होगी।' राघव ने कहा कि यदि आज दूज न हो तो मैं पंडित नहीं।' पंडितों ने कहा कि 'राघव वाममार्गी है; यक्षिणी की पूजा करता है, जो चाहे सो कर दिखावे, पर आज दूज नहीं हो सकती।' राघव ने यक्षिणी के प्रभाव से उसी दिन संध्या के समय द्वितीया का चंद्रमा दिखा दिया[१]। पर जब दूसरे दिन चंद्रमा देखा गया तब वह द्वितीया का ही चंद्रमा था। इसपर पंडितों ने राजा रत्नसेन से कहा 'देखिए, यदि कल द्वितीया रही होती तो आज चंद्रमा की कला कुछ अधिक होती; झूठ और सच की परख कर लीजिए।' राघव का भेद खुल गया और वह वेदविरुद्ध आचार करने वाला प्रमाणित हुआ। राजा रत्नसेन ने उसे देशनिकाले का दंड दिया।
पद्मावती ने जब यह सुना तब उसने ऐसे गुणी पंडित का असंतुष्ट होकर जाना राज्य के लिये अच्छा नहीं समझा। उसने भारी दान देकर राघव को प्रसन्न करना चाहा। सूर्यग्रहण का दान देने के लिये उसने उसे बुलवाया। जब राघव महल के नीचे आया तब पद्मावती ने अपने हाथ का एक अमूल्य कंगन—जिसका जोड़ा और कहीं दुष्प्राप्य था—झरोखे पर से फेंका। पद्मावती की झरोखे पर झलक देख राघव बेसुध होकर गिर पड़ा। जब उसे चेत हुआ तब उसने सोचा कि अब यह कंगन लेकर बादशाह के पास दिल्ली चलूँ और पद्मिनी के रूप का उसके सामने वर्णन करूँ। वह लंपट है, परंतु चित्तौर पर चढ़ाई करेगा और इसके जोड़ का दूसरा कंगन भी मुझे इनाम देगा। यदि ऐसा हुआ तो राजा से मैं बदला भी ले लूँगा और सुख से जीवन भी बिताऊँगा।
यह सोचकर राघव दिल्ली पहुँचा और वहाँ बादशाह अलाउद्दीन को कंगन दिखाकर उसने पद्मिनी के रूप का वर्णन किया। अलाउद्दीन ने बड़े आदर से उसे अपने यहाँ रखा और सरजा नामक एक दूत
के हाथ एक पत्र रत्नसेन के पास भेजा कि पद्मिनी को तुरंत भेज दो, बदले में और जितना राज्य चाहों ले लो। पत्र पाते ही राजा रत्नसेन क्रोध से लाल हो गया और बहुत बिगड़कर दूत को वापस कर दिया। अलाउद्दीन ने चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई कर दी। आठ वर्ष तक मुसलमान चित्तौर को घेरे रहे और घोर युद्ध होता रहा, पर गढ़ न टूट सका। इसी बीच
- ↑ लोना चमारिन के संबंध में भी प्रसिद्ध है कि उसकी बात इसी प्रकार सत्य करने के लिये देवी ने प्रतिपदा के दिन आकाश में जाकर अपने हाथ का कंगन दिखाया था जिससे देखनेवालों को द्वितीया के चंद्रमा का भ्रम हुआा था।