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लक्ष्मी समुद्र खंड

कहेन्हि ‘न जानहिं हम तोर पीऊ। हम तोहिं पाव रहा नहिं जीऊ॥
पाट परी आई तुम बही। ऐस न जानहिं दहुँ कहँ अही’ ॥
तब सुधि पदमावति मन भई। सँवरि बिछोह मुरुछि मरि गई॥
नैनहेि रकत सुराही ढरै। जनहुँ रकत सिर काटे परै॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा। भा चंदन बंदन सब छारा॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा। देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी। जियत न बिछुरै सारस जोरी॥
जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि।
लोग कहैं यह सिर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि॥ ४ ॥
काया उदधि चितव पिउ पाहाँ। देखौं रतन सो हिरदय माहाँ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया। तेहि महँ दरस देखावै पीया॥
नैन नियर पहुँचत सुठि दूरी। अब तेहि लागि मरौं मैं झूरी॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाव, कहौं केहि रोई? ॥
साँस पास निति आवै जाई। सो न सँदेस कहे मोहिं आई॥
नैन कौड़िया होइ मँड़राहीं। थिरकि मारि पै आवै नाहीं॥
मन भँवरा भा कवँल बसेरी। होइ मरजिया न आनै हेरी॥
साथी आथि निआथि जो, सकै साथ निरबाहि।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि॥ ५ ॥
सती होइ कहँ सीस उघारा। घन महँ बीजु घाव जिमि मारा॥
सेंदुर जरै आगि जनु लाई। सिर कै आगि सँभारि न जाई॥
छूटि माँग अस मोति पिरोई। बारहिं बार जरै जौं रोई॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरे। सावन बूंद गिरहिं जनु झरे॥
भहर भहर कै जोबन बरा। जानहुँ कनक अगिनि महँ परा॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई। पाहुन पवन पानि सब कोई॥
खीन लंक टूटी दुखभरी। बिनु रावन केहि बर होइ खरी॥
रोवत पंखि बिमोहे, जस कोकिला अरंभ।
जाकरि कनक लता सो, बिछुरा पीतम खंभ॥ ६ ॥
लछिमी लागि बुझावै जीऊ। ना मरु बहिन! मिलहि तोर पीऊ॥


(४) पाव = पाया। सँवरि = स्मरण करके। सर = चिता।(५)थिरकि मार = थिरकता या चारों ओर नाचता है। साथी...निरबाहि = साथी वही है जो धन और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके। आथि = सार, पूँजी। निआथी = निर्धनता। (६) घन मँह...मारा = काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार। भहर भहर = जगमगाता हुआ। माँग = माँगती है। पाहुन पवन...सब कोइ = मेहमान समझकर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं। बर = बल, सहारा। अरंभ = रंभ, नाद, कूक। (७) बुझावै लागि = समझाने बुझाने लगी।