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(३४) लक्ष्मी समुद्र खंड

मुरछि परी पदमावत रानी। कहाँ जीउ, कहँ पीउ न जानी॥
जानहु चित्र मूर्ति गहि लाई। पाटा परी बहीं तस जाई॥
जनम न सहा पवन सकुवाँरा। तेइ सो परी दुख समुद अपारा॥
लछिमी नावँ समुद कै बेटी। तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी॥
खेलाति अही सहेलिन्ह सेंती। पाटा जाइ लाग तेहि रेती॥
कहेसि सहेली 'देखहु पाटा। मूरति एक लागि बहि घाटा॥
जौ देखा, तिवई है, साँसा। फूल मुवा, पै मुई न बासा' ॥
रंग जो राती प्रेम के, जानहु बीरबहूटि।
आइ वही दधि समुद महँ, पै रंग गएउ न छूटि॥ १ ॥
लछिमी लखन बतीसौ लखी। कहेसि ‘न मरै, सँभारहु सखी॥
कागर पतरा ऐस सरीरा। पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा॥
लहरि झकोर उदधि जल भीजा। तबहूँ रूप रंग नहिं छीजा'॥
आपु सीस लेइ बैठी कोरै। पवन डोलावे सखि चहुँ ओरै॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ। माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ॥
पानि पियाइ सखी मुख धोई। पदमिनि जनहुँ कवँल संग कोई॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही। ‘तिरिया! समुझि बात कहु मोही॥
देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर।
केहि नगरी कै नागरी, काह नावँ धनि तोर?' ॥ २ ॥
नैन पसार देख धन चेती। देखै काह, समुद कै रेती॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ। पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई। सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा। जो सुमेरु बिधि गरुअ सँवारा॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा। चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा॥
रहौ जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी। कैसे जिऔं भार दुख चाँपी? ॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ। दीन्ह बहाइ उदधि जल माहाँ॥
आवा पवन बिछोह कर, पाट परी बेकरार।
तरिवर तजा जो चूरि कै, लागौं केहि के डार? ॥ ३ ॥


(१) न जानी = न जानें। अहा = थी। सेंती = से। रेती = बालू का किनारा। तीवइ = स्त्री में। (२) कागर = कागज। पतरा = पतला। उड़ाइ = उड़कर। कोरै = गोद में। बोलि कै = पुकारकर। समुझि = सुध करके। (३) चेती = चेत करके, होश में आकर। देखै काह = देखती क्या है कि। झाँपी = आच्छादित। चाँपी = दबी हुई। चूरी = चूर्ण किया। लागौं केहि के डार = (मुहा०) किसको डाल लगूँ अर्थात् किसका सहारा लूँ?