रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह प्रोही तरिवर तर फेरा॥
सीतल विरिछ समद के तीरा। अति उतंग ौ छाहै गंभीरा॥
तुरय बाँधि कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला।
देखत फिरै सो तरिवर साखा । लाग सूनै पंखिन्ह के भाखा।
पंखिन मह सो बिहँगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा॥
पूछहि सवै बिहंगम नामा। अहो मीत ! काहे तुम सामा?
कहेसि 'मीत ! मासक दुइ भए । जंबूदीप तहाँ हम गए।
नगर एक हम देखा, गढ़ चितउर अोहि नाव ।।
सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढ़े तेहि ठाव ॥ ६
॥ जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धुंध बाजा॥
नागमती है ताकरि रानी। जरी बिरह भइ कोइल बानी।
अब लगि जरि भइ होइहि छारा। कही न जाइ बिरह के झारा॥
हिया फाट वह जबही ककी। परै आँसू सब होइ होइ ल की।
चहँ खंड छिटकी वह आगी। धरती जरति गगन कहँ लागी॥
बिरह दवा को जरत बुझावा। जेहि लागै सो सौहैं भावा।
हौं पुनि तहाँ सो दाढ़े लागा। तन भा साम जीउ लेइ भागा॥
का तुम हँसहु गरब के, करहु समुद महँ केलि ।
मति अोहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि' ॥७॥
सुनि चितउर राजा मन गुना । विधि सँदेस मैं कासौं सुना॥
को तरिवरि पर पंखी बेसा। नागमती कर कहै स देसा!
को तुं मीत मन-चित्त-बसेरू । देव कि दानव पवन पर्खरू!
ब्रह्म बिस्न बाचा है तोही। सो निज बात कहै तू मोही।
कहाँ सो नागमती ते देखी। कहेसि बिरह जस मनहि बिसेखी॥
हौं सोई राजा भा जोगी। जेहि कारन वह ऐसि बियोगी।
जस तूं पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहिं जाइ उड़ि परौं।
पंखि ! आँखि तेहि मारग, लागी सदा रहाहि ।।
कोइ न सँदेसी आवहि, तेहि क सँदेस कहाँहि ॥ ८॥
पूछसि कहा सँदेस बियोगू । जोगी भए न अानसि भोगू॥
दहिने संख न, सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै॥
तेलि बैल जस बाव फिराई। परा भँवर महँ सो न तिराई।
तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका। बाएँ फिरै कोहार क चाका॥
(७) धुंध बाजा = धुंध या अंधकार छाया। बानी = वर्ण की । भइ होइहि -- हई होगी। झारा = ज्वाला। लकी = लक। दवा = दावाग्नि । (८) बसेरू-बसनेवाला। दिन भरौं = दिन बिताता हूँ। महूँ = मैं भी। (8) दहिने संख - दक्षिणावर्त शंख नहीं फंकता। झूरै = सूखता है । तिराई = पानी के ऊपर पाता है।