पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३१५

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धनि जोबन अवगाह महँ, दे बूड़त, पिउ ! टेक ॥ ६ ॥
लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहँ पाउ, कंत! तन लटा ।
 तोहि देखे पिउ ! पलुहै कया। उतरा चीतु बहुरि करु मया ॥
चित्रा मित्र मीन कर पावा। पपिहा पीउ पुकारत पावा।
उग्रा अगस्त, हस्ति घन गाजा। तुरय पलानि चढ़े रन राजा॥
स्वाति बद चातक मख परे। समद सीप मोती सब भरे॥
 सरवर सँवरि हंस चलि आए। सारस कुरलहि, खेजन देखाए।
भा परगास, बाँस बन फूले । कंत न फिरे बिदेसहि भूले॥
बिरह हस्ति तन सालै, धाय करै चित चूर ।
बेगि अाइ, पिउ ! वाजहु, गाजहु होइ सदूर ।। ७

।। कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल, हौं बिरहै जारी॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहँ जरै सब धरति अकासा॥
तन मन सेज जरै अगिदाह । सब कह चंद, भएउ मोहि राह ॥
चहें खंड लागै अँधियारा। जौं घर नाहीं कंत पियारा॥
अबहूँ, निठर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा॥
 सखि झमक गावै अँग मोरी। हौं झराव, बिछरो मोरि जोरी॥
॥ जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कहुँ बिरह, सवति दुख दूजा॥

सखि मानै तिउहार सब, गाइ देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिन, रही छार सिर मेलि ॥ ८ ॥

अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी। दुभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी ?
 अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती ।
 का हिया जनावै सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ॥़
 घर घर चीर रचे सब काह । मोर रूप रंग लेगा नाह॥
पलटि न बहरा गा जो बिछोई । अबह फिरै, फिरै रँग सोई॥
बज्र अगिनि बिरहिन हिय जारा। सूलगि सुलगि दगधै होइ छारा॥
यह दुख दगध न जाने कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥

पिउ सौ कहेह सँदेसड़ा, हे भौंरा ! हे काग!
सो धनि बिरहै जरि मई, तेहि कधवाँ हम्ह लाग ॥ ६ ॥


(७) लटा = शिथिल हया। पलुहै = पनपती है। उतरा चीतु = चित्त से उतरा या भूली बात ध्यान में ला। चित्रा = एक नक्षत्र । तरय = घोडा पलानि = जीन कसकर। घाय = घाव । बाजह = लड़ो। गाजह=गरजो। सदूर = शादल, सिंह । (८) झमक = मनोरा झमक नाम का गीत । झरा = सूखती हूँ। जनम = जीवन। (8) दुभर = भारी, कठिन । नाह = नाथ। सो धनि बिरहै...लाग = अर्थात् वही धुआँ लगने के कारण मानों भौंरे और कौए काले हो गए।