हौं अस जोगि जान सब कोऊ। बीर सिँगार जिते मैं दोऊ॥
उहाँ सामुहें रिपु दल माहाँ। इहाँ त काम कटक तुम्ह पाहाँ॥
उहाँ त हय चढ़ि कै दल मंडौं। इहाँ त अधर अमिय रस खंडौं॥
उहाँ त खड़ग नरिंदहिं मारौं। इहाँ त बिरह तुम्हार सँघारौं॥
उहाँ त गज पेलौं होइ केहरि। इहवाँ काम कामिनी हिय हरि॥
उहाँ त लूटौं कटक खँधारू। इहाँ त जीतौं तोर सिंगारू॥
उहाँ त कुंभस्थल गज नावौं। इहाँ त कुच कलसहि कर लावौं॥
परै बीच धरहरिया, प्रेम राज को टेक?
मानहिं भोग छवी ऋतु, मिलि दूवौ होइ एक॥ ४ ॥
प्रथम बसंत नवल ऋतु आई। सुऋतु चैत बैसाख सोहाई॥
चंदन चीर पहिरि धरि अंगा। सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा॥
कुसुम हार और परिमल बासू। मलयागिरि छिरका कबिलासू॥
सौंर सुपेती फूलन डासी। धनि औ कंत मिले सुखबासी॥
पिउ सँजोग धनि जोबन बारी। भोरें पुहुप सँग करहिं धमारी॥
होइ फाग भलि चाँचरि जोरी। बिरह जराइ दीन्ह जस होरी॥
धनि ससि सरिस, तपै पिय सूरू। नखत सिंगार होहिं सब चूरू॥
जिन्ह घर कंता ऋतु भली, आव बसंत जो नित्त।
सुख भरि अवहिं देवहरै, दुःख न जानै कित्त॥ ५ ॥
ऋतु ग्रीषम कै तपनि न तहाँ:। जेठ अषाढ़ कंत घर जहाँ॥
पहिरि सुरंग चीर धनि झीना। परिमल मेद रहा तन भीना॥
पदमावति तन सिअर सुबासा। नैहर राज, कंत घर पासा॥
औ बड़ जूड़ तहाँ सोवनारा। अगर पोति, सुख तने ओहारा॥
सेज बिछावन सौंर सुपेती। भोग बिलास करहिं सुख सेंती॥
अधर तमोर कपुर भिमसेना। चंदन चरचि लाव तन बेना॥
भा आनंद सिंघल सब कहूँ। भागवंत कहँ सुख ऋतु छहूँ॥
दारिउँ दाख लेहिं सर, आम सदाफर डार।
हरियर तन सुअटा कर, जो अस चाखनहार॥ ६ ॥
रितु पावस बरसै पिउ पाबा। सावन भादौं अधिक सोहावा॥
पदमावति चाहत ऋतु पाई। गगन सोहावन, भूमि सोहाई॥
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी। धनि निसरीं जनु बीरबहूटी॥
चमक बीजु, बरसै जल सोना। दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
रंगराती पीतम सँग जागी। गरजे गगन चौंकि गर लागी॥
(४) मंडौं = शोभित करता हूँ। इहवाँ काम...हिय हरि = यहाँ कामिनी के हृदय से कामताप को हरकर ठेलता हूँ। खँधारू = स्कंधावार, तंबू, छावनी। धरहरिया = बीचबिचाव करनेवाला। (५) सार = चादर। डासी = बिछाई हुई। देवहरै = देवमंदिर में। (६) झीना = महीन। सिअर = शीतल। सोवनार = शयनागार। ओहारा = परदे। सुख सेंती = सुख से। (७) चाहति = मनचाही। बरसै जल सोना = कौधे की चमक में पानी की बूँदें सोने की बूँदों सी लगती