पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३०५

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पद्मावती रत्नसेन भेंट खंड १२ : जागत रान भए भिनसारा। भई अलस सोवत बेकरारा ॥ अलक सुरंगिनि हिरदय परी। नागेंग छुव नागिनि बिष भरी ॥ लरी मुरी हिय हार लपेटी। सुरसरि जतु कालिदी भंटी जन पयाग अरइल बिच मिली । सोभित ावली ॥ नाभी ला पुन्नि है. देवता कह कलप सिरआपुहि दोष न लाव ३६। बिहंसि जगावह सखी सयानी। सूर उठा, उद्य , पदमिनि रानी। सुनत सूर ज, कंवल बिगासा। मधुकर आाइ लीन्ह मधु बासा ॥ जनतें माति निसयानी वसी। अति वेसँमार फूलि ज रसी । नैन कॉल जानसँ दुइ फूले । चितवनि मोहि मिरिग जनु भूल ॥ तन न सेंमार केस ऑो चोलो । चित अचेत जन बाउरि भोलो । भइ ससि हीन गहन अस गही। बिधुरे नखततेज भरि रही । कंवल माँह जनु केसरि दीठी । जोबन हुत सो केवाइ बईठी ॥ बेलि जो राखी इंद्र कहूँ, पवन बास नहि दीन्ह । लागेउ प्राइ भर तेहि, कलो बेधि रस लोन्ह 1३७। हंसि सखी सरेखी। मानद् सि पूर्ताि कुमुद चंद्र मुख देखी । रानी तुम ऐसी सुकुमारा फूल ! । बास तन जोव तुम्हारा । सहि नह सकह हिये पर हारू। कैसे सहिड कंत कर भारू ? मुख अंज बिगले दिन राती। सो भिलान कहह केहि भाती ? अंधर कंवल जो सहा न पानू । सहा लाग मुख भानू ? लंक जो पै ग देत मुरि जाई। कंसे रही जो रावन राई भा जोऊ ? चंदन चोव पवन अस पीऊ। भइउ सम चित्व कस सब अरगज मरगज भयडलोचन बिब सरोज । ‘सत्य कहलु पद्मावति' सखी परी सब खोज 1३८। कहींसखी मापन सतभाऊ । हों जो कहति कस रावन राऊ ।। कपिो भौंर पर । मोहि पुडुप देखे जनु ससि गहन तैस लेखे । आालस से मालस्पयुक्त । व = छूती है । लरी मुरी = बाल की काली लर्ट मोतियों के हार से लिपटेंकर लीं। नाभी लाभुलाब = नाभि पुष्य लाभ करके काशोकुंड कहलाती है इसी से देवता लोग उसपर सिर काटकर मरते हैं पर उसे दोष नहीं लगता। (सुनत सूरमधु बासा कमल ३७) = खिला अथतु नेत्र ख ले गौर भौंरे मध और सुगंध लेने बैठे अर्थात् काली पुतलियाँ दिखाई पड़ीं । निसयानी = सुध बुध खोए हुए। विधुरे नखत = ग्राभूषण इधर उधर बिखरे हैं । (३८) सखी = सयानी, चतुर । फूल बास तु फूल शरीर गौर बास जीव । रावन - (क) रमण करनेवाला।(ख) रावण । पर्टी = पीछे पड़ीं। (३६) मोह लेखे = मेरे हिसाब से, मेरी समझ में । ज"