हँसि पदमावति मानी बाता। निहचय तू मोरे रँग राता॥
तू राजा दुहुँ कुल उजियारा। अस के चरिचिउँ मरम तुम्हारा॥
पै तू जंबूदीप बसेरा। किमि जानेसि कस सिंघल मोरा? ॥
किमि जानेसि सो मानसर केवा। सुनि सो भौंर भा, जिउ पर छेवा॥
ना तुइ सुनी, न कबहूँ दीठी। कैंस चित्न होइ चितहिं पईठी? ॥
जौ लहि अगिनि करै नहिं भेदू। तौ लहि औटि चुवै नहिं मेदू॥
कहँ संकर तोहिं ऐस लखावा? । मिला अलख अस पेम चखावा॥
जेहि कर सत्य सँघाती तेहि कर डर सोइ मेट।
सो सत कहु कैसे भा, दुवौ भाँति जो भेंट॥ २७ ॥
सत्य कहौं सुनु पदमावती। जहँ सत पुरुष तहाँ सुरसती॥
पाएउँ सुवा, कही वह बाता। भा निहचय देखत मुख राता॥
रूप तुम्हार सुनेउँ अस नीका। ना जेहि चढ़ा काहु कहँ टीका॥
चित्र किएउँ पुनि लेइ लेइ नाऊँ। नैनहि लागि हिये भा ठाऊँ॥
हौं भा साँच सुनत ओहि घड़ी। तुम होइ रूप आइ चित चढ़ी॥
हौं भा काठ मूर्ति मन मारे। चहै जो कर सब हाथ तुम्हारे॥
तुम्ह जौ डोलाइहु तबहीं डोला। मौन साँस जौ दीन्ह तौ बोला॥
कौ सोवै, कौ जागे? अस हौं गएउँ बिमोहि।
परगट गुपुत न दूसर, जहँ देखौं तहँ तोहि॥ २८ ॥
बिहँसी धनि सुनि कै भाऊ। हौं रामा तू रावन राऊ॥
रहा जो भौंर कँवल के आसा। कस न भोग मानै रस बासा? ॥
जस सत कहा कुँवर! तू मोही। तस मन मोर लाग पुनि तोही॥
जब हुँत कहि गा पंखि सँदेसी। सुनिउँ कि आवा है परदेसी॥
तब हुँत तुम बिनु रहै न जीऊ। चातकि भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥
भइउँ चकोरि सो पंथि निहारी। समुद सीप जस नैन पसारी॥
भइउँ बिरह दहि कोइल कारी। डार डार जिमि कूकि पुकारी॥
कौन सो दिन जब पिउ मिलै, यह मन राता तासु।
वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु॥ २९ ॥
कहि सत भाव भई कँठलागू। जनु कंचन औ मिला सोहागू॥
चौरासी आसन पर जोगी। खट रस, बंधक चतुर सो भोगा॥
(२७) चरचिउँ = मैंने भाँपा(स्त्री० क्रिया)। बसेरा = निवासी। केवा = कमल। छेवा = डाला या खेला।
(२८) नैनहिं लागि = आँखों से लेकर। साँच = (क) सत्य स्वरूप। (ख) सच्चा । रूप = (क) रूप। (ख) चाँदी। (२९) रावन = (क) रमण करनेवाला। (ख) रावण। जब हुँत = जब से। सुनिउँ = (मैंने) सुना (स्त्री० क्रिया)। तब हुँत = तब से। (३०) चौरासी आसन = योग के और कामशास्त्र के। बंधक = कामशास्त्र के बंध।