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पदमावत

जोगिन्ह बहुत छंद न ओराहीं। बूँद सेवती जैस पराहीं॥
परहिं भूमि पर होइ कचूरू। परहिं कदलि पर होइ कपूरू॥
परहिं समुद्र खार जल ओही। परहिं सीप तौ मोती होहीं॥
परहिं मेरु पर अमृत होई। परहिं नागमुख विष होइ सोई॥
जोगी भौंर निठुर ए दोऊ। केहि आपन भए? कहै जौ कोऊ॥
एक ठाँव ए थिर न रहाहीं। रस लेइ खेलि अनत कहुँ जाहीं॥
होइ गृही पुनि होइ उदासी। अंत काल दूबौ बिसवासी॥
तेहि सौं नेह को दिढ़ करै? रहहिं न एकौ देस।
जोगी, भौर, भिखारी, इन्ह सौं दूर अदेस॥ २१ ॥
थल थल नग न होहिं जेहि जोती। जल जल सीप उपनहिं मोती॥
बन बन बिरिछ न चंदन होई। तन तन बिरह न उपनै सोई॥
जेहि उपना सो औटि मरि गयऊ। जनम निनार न कबहूँ भएऊ॥
जल अंबुज, रवि रहै अकासा। जौ इन्ह प्रीति जानु एक पासा॥
जोगी भौंर जो थिर न रहाहीं। जेहि खोजहिं तेहि पावहिं नाहीं॥
मैं तोहि पायउँ आपन जीऊ। छाँड़ि सेवाति न आनहि पीऊ॥
भौंर मालती मिले जौ आई। सो तजि आन फूल कित जाई? ॥
चंपा प्रीति न भौंरहिं, दिन दिन आगरि बास।
भौंर जो पावै मालती, मुएहु न छाँडे पास॥ २२ ॥
ऐसे राजकुँवर नहीं मानौं। खेलु सारि पाँसा तब जानौं॥
काँचे बारह परा जो पाँसा। पाके पैंत परी तन रासा॥[]
रहै न आठ अठारह भाखा। सोरह सतरह रहैं त राखा॥
सत जो धरै सो खेलनहारा। ढारि इगारह जाइ न मारा॥
तूँ लीन्हे आछसि मन दूवा। ओ जुग सारि चहसि पुनि छूवा॥
हौं नव नेह रचौं तोहिं पाहाँ। दसवँ दावँ तोरे हिय माहाँ॥
तौ चौपर खेलौं करि हिया। जौ तरहेल होइ सौतिया॥
जेहि मिलि बिछुरन औ तपनि, अंत होइ जौ निंत।
तेहि मिलि गंजन को सहै? बरु बिनु मिलै निचित॥ २३ ॥


(२१) ओराही = चुकते हैं। छंद = छल, चाल। कचूर = हलदी की तरह का एक पौधा। दूरि अदेस = दूर ही से प्रणाम? (२२) न आनहिं पीऊ = दूसरा जल नहीं पीता। आगरि = अधिक। (२३) सारी = गोटी। पैंत = दांव। रास = ठीक।

सत = (क) सात का दावँ। (ख) सत्य। इगारह = (क) दस इंद्रियाँ और मन। (ख) ग्यारह का दाँव। दूवा। दुबधा। (ख) दो। जुग सारी = (क) दो गोटियाँ, (ख) कुच। सदवँ दाँव = (क) दसवाँ दाँव। (ख) अंत तक पहुँचानेवाली चाल। तरहेल = अधीन, नीचे पड़ा हुआ। सौतिया = (क) तिया, एक दाँव। (ख) सपत्नी। गंजन = नाश, दुःख।

  1. पाठांतर — काँचैं बारहि बार फिरासी। पाँके पौ फिर थिर न रहासी॥