पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२८३

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रत्नसेन सूली खंड १०१ जी मै बात होइ भलि आगे । कहा चहिय, का भा रिस लागे । राजकुंवर यहहोहि न जोगी । नि पदमावति भएड वियोगी जंवदीप बेटा। जो है लिखा सो जाइ मेटा राजघर न । तुम्हरहि सु जाइ मोहि माना। श्र जेहि कर, बर के तेइ माना। तोका पुनि यह बात सुनी सिव लोका। करसि बियाह धरम है ॥ माँगे भीख खपर लेइ, मुए न बार । बूझहु, कनक कचोरी भौखि देह, नहिं मार 1१३। औोहट होह रे भाँट भिखारी का तू मोहि देहि असि गारी को मोहि जोग जगत होइ पारा । जा सहें हेरों जाइ पतारा ॥ जोगी जती आव जो कोई। सुनतह वासमान भा सोई ॥ भीख लेहि फिरि माँगह आगे । ए सब रैनि रहे गढ़ लागे । जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा। नाहि बेधि सूरी जिड लीन्हा ॥ जेहि अस साध होइ जिउ खोवा। सो पतंग दीपक तस रोवा। सुरनरमुनि सब गंध्रब देवा। तेहि को गने ? करेह निति सेवा । मोसों को सरवरि करे ? सु, रे झूठे भट । छार होइ जौ चाल, निज हस्तिन कर ठाट I१४। जोगी घिरि मेले सब पाछे। उरए माल आाए रन काछे ॥ मांमन्ह कहा, सुनह हो राजा। देखह अब जोगिन्ह कर काजा ॥ हम जो कहा तुम्ह करह न जझ । होत अब दर जगत प्रसू ॥ खिन इक महें झुरमुट होइ बीत। दर महें चढ़ि जो रहै सो जीता। के धीरज राजा तब कोसा। अंगद प्राइ पाँव रन रोपा ॥ हस्ति पाँच जो अगमन धाए । तिन्ह अंगद धरि सूड फिराए । ान्ह उड़ाइ सरग कहें गए। लौटि न फिरे, तलैहि के भए । देखत रहे अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न जाय । जोगिन्ह कर अस जूझबभूमि न लागत पाय ।1१५। कहह बात, जोगी अब प्राए 1 खिनक माहें चाहत हैं भाए ॥ जौ लहि धावह अस के खेलह हस्तिन केर जह सब पेलह। जस गज पेलि होहि रन आागे। तस बगमेल करह सेंग लागें । (१४) औोहट = ओोट, हट परे । (१५) मेले = जुटे । उरए = उत्साह या चाव से भरे (उराव = उत्साह, हौसला) । माल = मल्ल, पहलवान । दर दल । झुरमुट = । होइ बीता हुआा चाहता है । चढ़ि जोर है = जो धरा अग्रसर होकर बढ़ता है। अगमन = आगे । अचंभ = अद्भुत व्यापार। (१६) अस के 1 यूथ । जस = जैसे ही। तस = तैसे ही। बगमेल =

इस प्रकार जूह

सवारों की पंक्ति । अंगसरी = अग्रसरनागे , ।