पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२७३

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गंधर्वसेन मंत्री खंड छनहि सरग छाइगा, सूज गयज अलोपि । दिनहि राति आस देखियचढ़ा इंद्र अस कोपि ॥ ३ ॥ देखि कटक नौ मैIत हाथी। बोले रतनसेन कर साथी । होत आाव दल बहुत प्रसूझा। आस जानिय कियू होदि जूझा। राजा तू जोगी होइ खेला। एहीं दिवस वह हम भए चेला जहाँ गाढ़ ठाकुर कहें होई। संग न डे सेवक सोई जो हम मरन दिसव मन ताका। श्रा आाइ पूजी वह साका । बरु जिउ जाइजाइ नहि बोला। राजा सत सुमेरु नहि डोला। गुरू केर जो प्रायस पावहसौंह होह चक्र लावह भाजू कह रन भारत, सत बाचा देइ राखि । सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरे पुनि साखि । ४। गुरू कहा चेला सिध हो । पेम बार होइ करह न कोहू । जाकहें- सीस नाइ कै दी। रंग न होइ । ऊभ जी की। जेहि जिज पेम पानि भा सोई। जेहि रॉग मिले मोहि रंग होई ॥ जौ पे जाइ पेम सीं जूझाकित तप मरह सिद्ध जो बूझा एहि सेंति बहुरि जूझ नहि करिए। खड़ग देखि पानी हो ढरिए । पानिहि काह खड़ग ईं धारा। लौटि पानि होइ सोइ जो मारा पानी सेंति आागि का ? बुझाइ जौ पानी परई । । करई जाइ सीस दीन्ह मैं अगमन, पेम जानि सिर मेलि । अब सो प्रीति निबाहीं, चलौं सिद्ध होइ खेलि ॥ ५ ॥ राजे धरे दुख ऊपर दुख सहै । कि सब जोगी। बियोगी ना जिउ धरक धरत होइ कोई। नाहीं मरन जियन डर होई ॥ नाग फाँस उन्ह मेला गीवा। हरख न बिसम एक जीवा। जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा। बिसरे नहि जौ लहि तन साँसा ॥ कर किंगरी तेहि बजावै। इहै गीत बैरागी गावै । _तंतु भलेहि यानि गिद्ध मेली फाँसी । है न सोच हिय, रिस सब नासी ॥ में गिज फाँद ओोहि दिन मेला । जेहि दिन पेम पंथ होइ खेला। परगट गुपुत सकल महंह पूरि रहा सो नाँवु जहें देखाँ तहूँ औोही, दूसर नहि ज, जावें । ६ अलोपि गए - लुप्त हो गए । (४) साका = पूजसमय पूरा हूंप्रग 'ीत बोला = बचनप्रतिज्ञा । (५) ऊभ ऊँचा। एहि = इससेइसलिये । पानिहि कहा धारा = पानी में तलवार मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों बराबर हो जाता है । लौट“मारा = जो मरता है वही उलटा पानी (कोमल या नम्र ) हो जाता है । धरक = धड़क। बिसमो = विषाद (अवध) । रिस सब नासी क्रोध भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है ।