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राजा गढ़ छेंका खंड

सदा पिरीतम गाढ़ करेई। ओहि न भुलाइ, भूलि जिउ देई॥
मूरि सजीवन आनि कै, औ मुख मैला नीर।
गरुड़ पंख जस झारै, अमृत बरसा कीर॥ १९ ॥
मुआ जिया अस बास जो पावा। लीन्हेसि साँस, पेट जिउ आवा॥
देखेसि जागि, सुआ सिर नावा। पाती देइ मुख बचन सुनावा॥
गुरू क बचन स्त्रवन दुइ मेला। कीन्हि सुदिस्टि, बेग चलु चेला॥
तोहि अलि कीन्ह आप भइ केवा। हौं पठवा गुरु बीच परेवा॥
पौन साँस तोसौं मन लाई। जोवै मारग दिस्टि बिछाई॥
जस तुम्ह कया कीन्ह अगिदाहू। सो सब गुरु कहँ भएउ आगाहू॥
तब उदंत छाला लिखि दीन्हा। बेगि आउ, चाहै सिंध कीन्हा॥
आवहु सामि सुलच्छना, जीउ बसे तुम्ह नाँव।
नैनहि भीतर पंथ है, हिरदय भीतर ठावँ॥ २० ॥
सुनि पदमावति के असि मया। भा बसंत उपनी नइ कया॥
सुआ क बोल पौन होई लागा। उठा सोइ, हनुवँत अस जागा॥
चाँद मिलै कै दिन्हेसि आसा। सहसौ कला सूर परगासा॥
पाति लीन्हि, लेइ सीस चढ़ावा। दीठि चकोर चंद जस पावा॥
आस पियासा जो जेहि केरा। जौं झिझकार, ओहि सहुँ हेरा॥
अब यह कौन पानि मैं पीया। भा तन पाँख, पतँग मरि जीया॥
उठा फूलि हिरदय न समाना। कंथा टूक टूक बेहराना॥
जहाँ पिरीतम वै बसहिं, यह जिउ बलि तेहि बाट॥
वह जो बोलावै पावँ सौं, हौं तहँ चलौं लिलाट॥ २१ ॥
जो पथ मिला महेसहि सेई। गएउ समुंद ओहि धँसि लेई॥
जहँ वह कुंड विषम औगाहा। जाइ परा तहँ पाव न थाहा॥
बाउर अंध पेम कर लागू। सौंहँ धँसा, किछु सूझ न आगू॥
लीन्हे सिधि साँसा मन मारा। गुरू मछंदरनाथ सँभारा॥
चेला परे न छाँड़हि पाछू। चेला मच्छ, गुरू जस काछू॥
जस धँसि लीन्ह समुद मरजीया। उघरे नैन, बरै जस दीया॥
खोजि लीन्ह सो सरगदुआरा। बज्र जो मूंदे जाइ उघारा॥
बाँक चढ़ाव सरग गढ़, चढ़त गएउ होइ भोर।
भइ पुकार गढ़ ऊपर, चढ़े सेंधि देइ चोर॥ २२ ॥


गाढ़ = कठिन अवस्था। (२०) केवा = केतकी। अगाहू भएउ = विदित हुआ। उदंत = (सं०) संवाद, वृतांत। छाला = पत्र। सामि = स्वामी। (२१) हनुवँत = हनुमान् के ऐसा बली। झिझकार = झिड़के। सहुँ = सामने। बेहराना = फटा। (२२) धँसि लेई = धँसकर लेने के लिये। लागू = लाग लगन। परे = दूर। बाँक = टेढा, चक्करदार। सरगदुआर = दूसरे अर्थ में दशम द्वार।