हौंं अछरी कबिलास कै जेहि सरि पूज न कोइ।
मोहि तजि सँवरि जो ओहिं मरसि, कौन लाभ तेहि होइ? ॥ ३ ॥
भलेहिं रंग अछरी तोर राता। मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता॥
मोहिं ओहि सँवरि मुए तस लाहा। नैन जो देखसि पूछसि काहा॥
अबहिं ताहि जिउ देइ न पावा। तोहि अस अछरी ठाढ़ि मनावा॥
जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा। न जानौं काह होइ कबिलासा॥
हौं कबिलास काह लै करऊँ। सोइ कबिलास लागि जेहि मरऊँ॥
ओहि के बार जीउ नहिं बारौं। सिर उतारि नेवछावरि सारौं॥
ताकर चाह कहै जो आई। दोउ जगत तेहि देहुँ बड़ाई॥
ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ।
तेहि निरास पीतम कहँ, जिउ न देउँ का देउँ? ॥ ४ ॥
गौरइ हँसि महेस सौं कहा। निहचै एहि बिरहानल दहा॥
निहचै यह ओहि कारन तपा। परिमल पेम न आछै छपा॥
निहचै पेम पीर यह जागा। कसे कसौटी कंचन लागा॥
बदन पियर जल डभकहि नैना। परगट दुवौ पेम के बैना॥
यह एहि जनम लागि ओहि सीझा। चहै न औरहि, ओही रीझा॥
महादेव देवन्ह के पीता। तुम्हारी सरन राम रन जीता॥
एहू कहँ तस मया करेहू। पुरवहु आस कि हत्या लेहू॥
हत्या दुइ के चढ़ाए काँधे बहु अपराध।
तीसर यह लेउ माथे, जौ लेवै कै साध॥ ५ ॥
सुनि कै महादेव कै भाखा। सिद्धि पुरुष राजै मन लाखा॥
सिद्धहिं अंग न बैठे माखी। सिद्ध पलक नहिं लावै आँखी॥
सिद्धहिं संग होइ नहिं छाया। सिद्धहिं होइ भूख नहिं माया॥
जेहि जग सिद्ध गोसाई कीन्हा। परगट गुपुत रहै को चीन्हा? ॥
बैल चढ़ा कुस्टी कर भेसू। गिरजापति सत आइ महेस्॥
चीन्है सोइ रहै जो खोजा। जस विक्रम औ राजा भोजा॥
जो ओहि तंत सत्त सौं हेरा। गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा॥
बिनू गुरु पंथ न पाइय, भूलै सो जो मेट॥
जोगी सिद्ध होइ तब, जब गोरख सौं भेंट॥ ६ ॥
(४) तस = ऐसा (इस अर्थ में प्रायः प्रयोग मिलता है)। कबिलास = स्वर्ग। बारौं = बचाऊँ। सारौं = करुँ। चाह = खबर। निरास = जिसे किसी की आशा न हो, जो किसी के आसरे का न हो। (५) आछै = रहता है। कसे = कसने पर। लागा = प्रतीत हुआ। डभकहि = डबडबाते हैं, आर्द्र होते हैं। परगट... बैना = दोनों (पीले मुख औौर गीले नेत्र) प्रेम के वचन या बात प्रकट करते हैं। हत्या दुइ = दोनों कंधों पर एक एक (कवि ने शिव के कंधे पर हत्या की कल्पना क्यों की है, यह नहीं स्पष्ट होता)। (६) लाखा = लखा, पहचाना। मेरा = मेल, भेंट। जो मेट = जो इस सिद्धांत को नहीं मानता।