पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२५९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
७७
राजा रत्नसेन सती खंड

राजा रत्नसेन सती खंड ७७ कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा ? । जो सुवसंत करीलहि काहा ? पात बिछोह रूख जो फूला। सो महुआ रोवं अस भूला ॥ टप* महु ग्राँसु तस परहीं । होड़ महुआा बसंत ज्यों झरहीं । मोर बसंत सो पदमिनि बारी । जेहि बिनु भए बसंत उजारी ॥ पावा नवल बसंत पुनि बहु प्रारति बहु चोप । ऐस न जाना अंत ही पात झरहहोइ कोप ॥ ३ ॥ अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आाइ कोन्ह तोरि सेवा ॥ नापनि नाव चढ़े जो देई । सो तौ पार उतारे खेई ॥ सुफल लागि पग टेकेगें तोरा। सुआ क सेंवर भा मोरा । पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा। सो ऐसे मझधारा पाहन सेवा कहाँ पसीजा ? । जनम न प्रोद होइ जो भीजा ॥ बाउर सोड़ जो पाहन पूजा। सकत को भार लेइ सिर दूजा ।॥ काहे नहि जिय सोइ निरासा। मुए जियत मन जाकर नासा ॥ सिंघ तरेंदा जेजेइ गहा पार भए तेहि साथ । ते पे व डे बाउरे भेड़ प 9ि जिन्ह हाथ। ४ । देव कहा सुनु, बउरे राजा। देहि अगुमन मारा गाजा ॥ जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धरहरि करई' ॥ पदमावति राजा के बारी। आाइ सखिन्ह सह बदन उघारी ॥ जैस चाँद गोहने सब तारा । परेगें लाइ देखि उजियारा ॥ चमकहि दसन बीजू नाई। नैन चक्र जमकात भवाँई ॥ हौं तेहि दीप पौंग होइ परा। जिउ जम कातुि सरग लेइ धरा। बहरि न जानों दहूं का भ । दहें कविलास कि कहें आपसई ॥ अब हीं मरॉ निसाँसी, हिये न श्रावै साँस । रोगिया की को चालैबै दहि जहाँ उपास ? ॥ ५ ॥ मानहि. दोस देहूँ का का । संगी कया, मया नहि ताह ॥ हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग घायु सोई ॥ का मैं कीन्ह जो काया पोषी। दूषन मोहि, श्राप निरदोषी॥ फागु, बसंत खेलि गइ गोरी । मोहि तन लाइ बिरह के होरी ॥ ३ (३) कहाँ सो देस"लाहा ? = बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है ? कल के वन में वसंत के जाने हो से क्या ? भारति दुःख चोप चाह । (४) औोद = गोला, श्रादू तरेंरा तेरनेवाला काठ, बेड़ा । (५) गाजा =गाजवन । धरहरि = धर पकड़बचाव । गोहने = साथ या सेवा में । अपसई = गायब हो गई। निसाँसो = बेदम । को चालै = कौन चलावे । १. कुछ प्रतियों में यह पाठ है--‘जबहि आागि अपने सिर लागो । आान बुझाने कहाँ सो आागी ।'