पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२२८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६
पदमावत

अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर।
तब किछु हाथ न लागिहि मूसि जाहि जब चोर॥६॥

सुनि सो बात राजा मन जागा। पलक न मार, पेम चित लागा॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औमूँगा। जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा॥
हिय पै जोति दीप वह सुझा। यह जो दीप अँधियारा बूझा॥
उलटि दीठि माया सौं रूठी। पलटि न फिरी जानि कै झूठी॥
जौ पै नाहीं अहथिर दसा। जग उजार का कीजिय बसा॥
गुरु विरह चिनगसी जो मेला। जो सुलगाइ लेइ सो चेला॥
अब करि फनिग भृंग कै करा। भौंर होहुँ जेहि कारन जरा॥

फूल फूल फिरि पूछौं, जौ पहुँचौं ओहि केत।
तन नेवछावरि कै मिलौं, ज्यों मधुकर जिउ देत॥७॥

बंधू मीत बहुतै समझावा। मान न राजा कोउ भुलावा॥
उपजी पेम पीर जेहि आई। परबोधत होइ अधिक सो आई॥
अमृत बात कहत विष जाना। पेम क बचन मीठ के माना॥
जो ओहि विषै मारि कै खाई। पूँछहु तेहि पेम पम मिठाई॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई। अमृत राज तजा विष खाई॥
औ महेस बड़ सिद्ध कहावा। उनहूँ विषै कंठ पै लावा॥
होत आज रवि किरिन विकासा। हनुवँत होइ को देइ सुआसा॥

तुम सब सिद्धि मनावहु, होइ गनेस सिधि लेव।
चेला को न चलावै, तुले गुरू जेहि भेव?॥८॥


 

जायें (सं० मूषणा)। (७) अहथिर = स्थिर। उजार = उजाड़। बसा = बसे हुए। फनिग = फनगा, फतिंगा, पतंग। भृंग = कीड़ा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि और फतिंगों को अपने रूप का कर लेता है। करा = कला, व्यापार। केत = कैत, ओर, तरफ अथवा केतकी। (८) अमृत = संसार का अच्छा से अच्छा पदार्थ। विषै = विष तथा अध्यात्म पक्ष में विषय।

होत आव...सुआसा = लक्ष्मण को शक्ति लगने पर जब यह कहा गया था कि सूर्य निकलने के पहले यदि संजीवनी बूटी आ जायगी तो वे बेचेंगे, तब राम को हनुमान जी ने आशा बँधाई थी। तुले गुरू जेहि भेव = जिस भेद तक गुरु पहुँचते है, जिस तत्व का साक्षात्कार गुरु करता है।