पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२२१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९
नखशिख खंड

बरुनि बान अस ओपहँ, बेधें रन बन ढाँख।
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥६॥

नासिक खरग देउँ कह जोगू। खरग खीन, वह बदन-सँगोजू॥
नासिक देखि लजानेउ सुआ। सूक आइ बेसरि होइ ऊआ॥
सुआ, गो पिअर हिरामन लाजा। और भाव का बरनौं राजा॥
सुआ, सो नाक कठोर पँवारी। वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी॥
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥
अधर दसन पर नासिक सोभा। दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा॥
खंजन दुहुँ दिसि केलि कराहीं। दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं॥

देखि अमिय यस अधरन्ह, भएउ नासिका कीर।
पौन वास पहुँचावैं, अस रस छाँड़ न तीर॥७॥

अधर सुरंग अभी रस भरे। बिंब सुरंग लाजि वन फरे॥
फूल दुपहरी जान राता। फल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता॥
होरा लेइ सो विद्रुम धारा। विहँसत जगत होइ उजियारा॥
भए मँजीठ मानन्ह रँग लागे। कुसुम-रंग थिर रहै न आगे॥
अस कै अधर अभी भरि राखे। अवहिं अछूत, न काहू चाखे॥
मुख तँबोल रँग धारहिं रसा। केहि मुख जोग जो अमृत बसा?॥
राता जगत देखि रँगराती। रुहिर भरे आछहि बिहँसाती॥

अभी अधर अस राजा, सब जग आस करेइ।
केहि कहँ कँवल बिगासा, को मधुकर रस लेइ?॥८॥

दसन चौक बैले जनु हीरा। औ बिच बिच रंग स्याम गंभीरा॥
जस भादौं दिसि दामिनि दीरी। चमक उठै तस बना बतीसी॥
वह सुजोति हीरा उपराहीं। हीरा जाति सो तेहि परछाहीं॥
जेहि दिन दसनजोति निरमई बहुतै जोति जोति ओहि भई॥
रवि ससि नखत दिपहि ओहि जोनी। रतन पदारथ मानिक मोती॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥
दामिनि दमकि न सरवरि पूजी। पुनि ओहि जोति और को दूजी?॥

हँसत दसन अस चमके, पाहन उठे झरक्कि।
दारिउँ सरि जो न कै सका, फाटेउ हिया दरक्कि॥९॥


फिरावहीं = चक्कर देते हैं। (६) अनी = सेना। वनावरि = वाणावलि, तोरों की पंक्ति। साखी = वृक्ष। साखी = साक्ष्य, गवाही। रन = अरण्य (प्रा॰ रण्य)। (७) जोग देउँ = जोड़ मलाऊँ। समता में रखूं। पँवारी = लोहारों का एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं। हिरकाइ लेइ = पास सटा ले। (८) हीरा केइ....उजियारा = दाँतों को श्वेत अधरों को अरुण ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होता, कहकर कवि ने उषा या अरुणोदय का बड़ा सुंदर गूढ़ संकेत रखा है। मजीठ = बहुत गहरा मजीठ के रंग का लाल।