पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१८७

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स्तुति खंड

दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज।
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज॥१३॥

बरनौं सूर भूमिपति राजा। भूमि न भार सहै जेहि साजा॥
हय गय सेन चलै जग पूरी। परवत टूटि उड़हि होइ धूरी॥
रेनु, रैनि होइ रविहिं गरासा। मानुख पंखि लेहिं फिर बासा॥
भुईं उड़ि अंतरिक्ख मृतमंडा। खंड खंड धरती बरह्मंडा॥
डोले गगन, इंद्र डरि काँपा। बासुकि जाइ पतारहिं चाँपा॥
मेरु धसमसै, समद सुखाई। बन खँड टूटि खेह मिलि जाई॥
अगिलहिं कह पानी लेई बाँटा। पछिलहिं कहँ नहिं काँदों आटा॥

जो गढ़ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर।
जब वह चढ़ै भूमिपति सेर साहिजग सूर॥१४॥

अदल कहीं पुहुमी जस होई। चाँटा चलत न दुखवै कोई॥
नौसेरवाँ जो आदिल कहा। साहि अदल सरि सोउ न अहा॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाईं। भई अहा सगरो दुनियाई॥
परी नाथ कोई छुवै न पारा। मारग मानुष सोन उछारा॥
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा। दूनौ पानि पियहिं एक घाटा॥
नीर खीर छानै दरबारा। दूध पानि सब करै निनारा॥
धरम नियाव चलै, सत भाखा। दूबर बली एक सम राखा॥

सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ।
गंग जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ॥१५॥

पुनि रुपवंत बखानों काहा। जावत जगत सबै मुख चाहा॥
ससि चौदसि जो दई सँवारा। ताहू चाहि रूप उँजियारा॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा। जग जुहार कै देत असीसा॥
जैस भानु जग ऊपर तपा। सबै रूप ओहि आगे छपा॥
अस भा सूर पुरुष निरमरा। सूर चाहिं दस आगर करा॥
सौंह दीठि कै हेरि न जाई। जेहि देखा सो रहा सिर नाई॥
रूप सवाई दिन दिन चढ़ा। विधि सुरूप जग ऊार गढ़ा॥


सूर = शेरशाह सूर जाति का पठान था। जुलकरन = जलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि जिसका अर्थ लोग भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। कोई दो सींगवाला अर्थ करते हैं और कहते हैं कि फेंक में सिकंदर यूनानी (यवन) प्रथा के अनुसार दो सींगवाली टोपी पहनता था, पूर्व और पश्चिम दोनों कोनों को जीतनेवाला, कोई बीस वर्ष राज्य करने वाला और कोई दो उच्च ग्रहों से युक्त अर्थात भाग्यवान् अर्थ करते हैं। (१४) काँदी कदँभ, कीचड़। (१५) अहा था। भई अहा वाह वाह हुई। नाथ = नाक में पहनने की नथ। पारा सकता है। निनार अलग अलग (निर्णय)। (१६) मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर = अग्र, बढ़कर। चाहि = अपेक्षाकृत