(१) पुनरुक्ति
'पद्मावत' में एक ही भाव, एक ही उपमा, कहीं कहीं तो एक ही वाक्य में न जाने कितनी जगह और कितनी बार आया है। सूर और चाँद के जोड़े से तो शायद ही कोई पृष्ठ खाली मिले। पद्मावती के नखशिख का जो वर्णन सूए ने रनसेन से किया है, प्रायः वही राघवचेतन अलाउद्दीन के सामने दुहराता है। प्रायः वे ही उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ फिर आई हैं॒; कुछ थोड़ी सी दूसरी हों तो हों। सूखे सरोवर के फटने का भाव तीन जगह लाया गया है। इसी प्रकार और बुहत सी पुनरुक्तियाँ हैं जिनके कारण पाठकों को कभी कभी विरक्ति हो जाती है।
(२) अरोचक और अनपेक्षित प्रसंगों का सन्निवेश
रत्नसेन-पद्मावती-समागम के वर्णन में राजा का रसायनी प्रलाप औौर शतरंज के मोहरों और चालों की बंदिश, नागमती-पद्मावती-विवाद के भीतर फूल पौदों के नामों की अनावश्यक योजना इसी प्रकार की है। सोलह शृंगार और बारह आभरणों का वर्णन तथा ज्योतिष का लंबा चौड़ा यात्राविचार केवल जानकारी प्रकट करने के लिये जोड़े हुए जान पड़ते हैं। ये किसी काव्य के प्रकृत अंग कदापि नहीं हो सकते। पद्मिनी, चित्रिणी नादि चार प्रकार की स्त्रियों के वर्णन भी कामशास्त्र के ग्रंथ में ही उपयुक्त हो सकते हैं। काव्य कामशास्त्र नहीं है।
(३) वर्णनों में वस्तुनामावली का अरोचक विस्तार
रत्नसेन के विवाह और बादशाह की दावत के वर्णन में पकवानों और व्यंजनों की लंबी सूची, बगीचे के वर्णन में पेड़ पौधों के नाम ही नाम, युद्धयात्रा आदि के वर्णन में घोड़ों की जातियों की गिनती से पाठक का जी ऊबने लगता है। वर्णन का अर्थ गिनती नहीं है।
(४) अनुचितार्थत्व
कई जगह शृंगार के प्रसंग में नायक रत्नसेन रावण कहा गया है; ऐसा हिंदी के कुछ और सूफी कवियों ने भी, शायद ‘रावन' का अर्थ रमण करनेवाला मानकर किया है। पर इस शब्द से ‘रुलानेवाले' रावण की ओर ही ध्यान जाता है। रावण बड़ा भारी प्रतापी ऑौर शूरवीर रहा हो, पर मनोहर नायक के रूप में कविपरंपरा से उसकी प्रसिद्धि नहीं है। वह हीन और दुष्ट पात्र ही प्रसिद्ध है।
(५) न्यूनपदत्व
भाषा पर विचार करते समय विभक्तियों, कारकचिह्नों, संबंधवाचक सब नामों और अव्ययों के लोप के ऐसे उदाहरण दिए जा चुके हैं जिनके कारण अर्थ में गड़बड़ी होती है।
(६) च्युतसंस्कृति
इसका एक उदाहरण दिया जाता है—
दसन देखि कै बीजु लजाना।
११