है—उसके अनुरूप प्रेम की व्यंजना के लिये एक मनुष्य का क्षुद्र हृदय पर्याप्त नहीं जान पड़ता; इससे कहीं कहीं वियोगिनी सारी सृष्टि के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई पड़ती है। उसकी 'प्रेमपीर' सारे विश्व की प्रेमपीर' सी लगती है।
(३) मर्मस्पशिनी भावव्यंजना
प्रेम या रति भाव के अतिरिक्त स्वामिभक्ति, वीरदर्प, पातिव्रत तथा और छोटे भावों की व्यंजना अत्यंत स्वाभाविक और हृदयग्राही रूप में जायसी ने कराई है; जिससे उनके हृदय की उदात्त वृत्ति और कोमलता का परिचय मिलता है।
(४) प्रबंधसौष्ठव
पद्मावत की कथावस्तु का प्रवाह सवभाविक है। केवल कुतूहल उत्पन्न करने के लिये घटनाएँ इस प्रकार कहीं नहीं मोड़ी गई हैं जिससे बनावट या अलौकिकता प्रकट हो। किसी गुण का उत्कर्ष दिखाने के लिये भी घटना में अस्वाभाविकता जायसी ने नहीं आने दी है। दूसरी बात यह है कि वर्णन के लिये जायसी ने मनुष्यजीवन के मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान कर रखा है। परिणाम वैसे ही दिखाए गए हैं जैसे संसार में दिखाई पड़ते हैं। कर्मफल के उपदेश के लिये उनकी योजना नहीं की गई है। पद्मावत में राघवचेतन ही का चरित्र खोटा दिखाया गया है; पर उसकी कोई दुर्गति कवि ने नहीं दिखाई। राघव का उतना ही वृत्त आया है जितने का घटनाओं को 'कार्य' की ओर अग्रसर करने में योग है।
(५) वर्णन की प्रकुरता
जायसी के वर्णन बहुत विस्तृत हैं—विशेषतः सिंहलद्वीप, नखशिख, भोज, बारहमासा, चढ़ाई और युद्ध के—जिनसे उनकी जानकारी और वस्तुपरिचय का अच्छा पता लगता है। कहीं तो इतनी वस्तुएँ गिनाई गई हैं कि जी ऊब जाता है।
(६) प्रस्तुत अप्रस्तुत का सुंदर समन्वय
पद्मावत की अन्योक्तियों और समासोक्तियों में प्रस्तुत अप्रस्तुत का जैसा सुंदर समन्वय देखा जाता है वैसा हिंदी के कम कवियों में पाया जाता है। अप्रस्तुत की व्यंजना के लिये जो प्रस्तुत वस्तुएँ काम में लाई गई हैं और प्रस्तुत की व्यंजना के लिये जो अप्रस्तुत वस्तुएँ सामने रखी गई हैं वे आवश्यकतानुसार कहीं बोधवृत्ति में सहायक होती हैं और कही भावों के उद्दीपन में। योगसाधकों के मार्ग की जो व्यंजना चित्तौरगढ़ के प्रस्तुत वर्णन द्वारा कराई गई है, वह रोचक चाहे न हो पर ज्ञानप्रद अवश्य है। इसी प्रकार 'कँवल जो बिगसा मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ' वाले दोहे में जो जल बिना सूखते कमल का प्रस्तुत दृश्य सामने रखा गया है वह सौंदर्य की भावना के साथ साथ दया और सहानुभूति के भाव को उद्दीप्त करता है।
(७) ठेठ अवधी का माधुर्य
जायसी ने संस्कृत के सुंदर पदों की सहायता के बिना ठेठ अवधी का भोला भाला माधुर्य दिखाया है, इसका वर्णन पूर्व प्रकरण में आ चुका है।
जिस प्रकार जायसी के उपर्युक्त गुणों और विशेषताओं की ओर पाठक का ध्यान गए बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार इन नीचे लिखी त्रुटियों की ओर भी—