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भइउँ चकोरि सो पंथ निहारी। समुद सीप जस नयन पसारी॥
भइउँ विरह जरि कोइल कारी। डार डार जिमि कूदि पुकारी॥

—जायसी


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(१) अमिय मूरि मय चूरन चारू। समन सकल भवरुज परिवारू॥

सुकृत संभु तन विमल विभूती। मजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मलहरनी। किए तिलक गुनगुन बस करनी॥

श्रीगुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती॥

—तुलसी

यदि गोस्वामी जी ने अपने 'मानस' की रचना ऐसी ही भाषा में की होती जैसी कि इन चौपाइयों की है—

कोउ नृप होउ हमैं का हानी। चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी?
जारै जोग सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥

तो उनकी भाषा 'पद्मावत' को ही भाषा होती और यदि जायसी ने सारी 'पद्मावत' की रचना ऐसी भाषा में की होती जैसी कि इस चौपाई की है—

उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा। हति दसमाय अमरपद दीन्हा॥

तो उसकी और 'रामचरितमानस की एक भाषा होती। पर जायसी में इस प्रकार की भाषा कहीं ढूँढ़ने से एकाध जगह मिल सकती है।तुलसीदास जी में ठेठ अवधी की मधुरता भी प्रसंग के अनुसार जगह जगह मिलती है। सारांश यह कि तुलसीदास जी को दोनों प्रकार की भाषाओं पर अधिकार था और जायसी को एक ही प्रकार की भाषा पर। एक ही ढंग की भाषा की निपुणता उनकी अनूठी थी। अवधी की खालिस, बेमेल मिठास के लिये 'पद्मावत' का नाम बराबर लिया जायगा।

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संक्षिप्त समीक्षा

अबतक जो कुछ लिखा गया उसमें जायसी की इन विशेषताओं और गुणों की ओर मुख्यतः ध्यान गया होगा—

(१) विशुध प्रेममार्ग का विस्तृत प्रत्यक्षीकारण

लौकिक प्रेमपथ के त्याग, कष्ट, सहिष्णुता तथा विघ्नबाधाओं का चित्रण करके कवि ने भगवत्प्रेम की उस साधना का स्वरूप दिखाया है जो मनुष्य की वृत्तियों को विश्व का पालन और रंजन करनेवाली उस परमवृत्ति में लीन कर सकती है।

(२) प्रेम की अत्यंत व्यापक और गूढ़ भावना

लौकिक प्रेम के उत्कर्ष द्वारा जायसी को भगवत्प्रेम की गंभीरता का निरूपरण करना था इससे वियोगवर्णन में सारी सृष्टि वियोगिनी को अनुभूति में योग देती दिखाई गई है। जिस प्रेम का आलंबन इतना बड़ा है—अनंत और विश्वव्यापक