और कवियों ने भी 'बिसासी' शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया है, जैसे—
(क) कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मों अँसुवान को लै बरसौ॥
—घनानंद
(ख) अब तौ उर माहि बसाय कै मारत ए जू बिसासी! कहाँ धौं बसे।
—घनानंद
(ग) सेखर घेरे करें सिगरे, पुरवासी बिसासी भए दुखदात हैं।
—शेखर
(घ) जापै हौं पठाई ता बिसासी पै गई न दीसै;
संकर की चाही चंदकला तैं लहाई रा।—दूलह
जायसी की भाषा बोलचाल की और सीधी है। समस्त पदों का व्यवहार उन्होंने बहुत ही कम किया है। जहाँ किया भी है वहाँ दो से अधिक पदों के समास का नहीं। दो पदों के समासों का भी हाल यह है कि वे तत्पुरुष ही हैं और संस्कृत की रीति पर नहीं हैं, विपरीत क्रम से हैं, जैसे कि फारसी में हुआ करते हैं। दो उदाहरण नमूने के लिये काफी होंगे—
(क) लीक पखान पुरुष कर बोला। (=पखान—लीक)
(ख) भा भिनसार किरिन रवि फूटी। (=रवि—किरिन)
एक स्थान में तो पद्मावत में फारसी का एक वाक्यखंड ही उठाकर रख दिया गया है—
केस मेघावरि सिर ता पाई।
यह 'सिर ता पाई' फारसी का 'सर ता पा' है जिसका अर्थ होता है सिर से पैर तक'। फारसी की बस इतनी ही थोड़ी सी झलक कहीं कहीं पर दिखाई पड़ती है, और सब तरह से जायसी की भाषा देशी साँचे में ढली हुई, हिंदुओं के घरेलू भावों से भरी हुई, बहुत ही मधुर और हृदयग्राहिणी है। 'खुतबोय', 'दराज', ऐसे भोंड़े शब्द, 'खुसाल खुसबाही सौं' ऐसे बेहदा वाक्य कहीं नहीं मिलते। बादशाही दरबार आदि के वर्णन में 'अरकान', 'वारिगह' आदि कुछ शब्द आए हैं पर वे प्रसंग के विचार से नहीं खटकते।
जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है, पर उसका माधुर्य निराला है। वह माधुर्य 'भाषा' का माधुर्य है, संस्कृत का माधुर्य नहीं। वह संस्कृत की कोमलकांत पदावली पर अवलंबित नहीं। उसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए है। 'मंजु', 'आनंद' आदि की चाशनी उसमें नहीं है। जायसी की भाषा और तुलसी की भाषा में यह बड़ा भारी मंतर है। जायसी की पहुँच अवध में प्रचलित लोकभाषा के भीतर बहते हुए माधुर्यस्रोत तक ही थी, पर गोस्वामी जी की पहुँच दीर्घ संस्कृत परंपरा द्वारा परिपक्व चाशनी के भांडागार तक भी पूरी पूरी थी। दोनों के भिन्न प्रकार के माधुर्य का अनुमान नीचे उद्धृत चौपाइयों से हो सकता है—
(१) जब हुँत कहि गा पंखि सँदेसो। सुनिउँ की आया है परदेसी॥
तब हुँत तुम्ह बिनु रहै न जीऊ। चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥